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________________ १५४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद [४९] इस प्रकार अकोविद-पुरुष धर्म और अधर्म का तर्क से सिद्ध करते हैं । वे दुःखों से वैसे ही नहीं छूट पाते जैसे पिंजरे से पक्षी । [५०] अपने-अपने वचन की प्रशंसा और दूसरे के वचन की निन्दा करते हुए जो उछलते हैं, वे संसार को बढ़ाते हैं । [५१] अब इसके बाद क्रियावादी दर्शन है, जो पूर्व कथित है । कर्म-चिन्तन नष्ट करने के कारण यह संसार-प्रवर्धक है । [५२] जो जानते हुए शरीर से किसी को नहीं मारता है या अनजान में हिंसा कर देता है, वह अव्यक्त/सूक्ष्म सावध कर्म का स्पृष्ट कर संवेदन अवश्य करता है । [५३] ये तीन आगमन-द्वार हैं, जिनसे पाप की क्रिया होती है । अभिक्रम्य-स्वयं कृत प्रयत्न से, प्रेष्य-अन्य सहयोग से और वैचारिक अनुमोदन से ।। [५४] ये तीन आदान हैं, जिनसे पाप किया जाता है । निर्वाण भाव-विशुद्धि से प्राप्त होता है । [५५] असंयत पिता आहार के लिए पुत्र की हिंसा करता है, किन्तु मेघावी पुरुष उसका उपभोग करते हुए भी कर्म से लिप्त नहीं होता । [५६] जो मन से प्रदूषित हैं, उनके चित्त नहीं होता । वे संवृतचारी न होने के कारण अनवद्य और अतथ्य हैं । [५७] इन दृष्टियों को स्वीकार करने से वे सुख-गौरव-निश्रित हो जाते हैं । वे लोग इसी को शरण मानते हुए पाप का सेवन करते हैं । [५८] जैसे जन्मान्ध पुरुष आस्त्रविनी/सछिद्र नौका पर आरूढ़ हो कर पार पाना चाहता है, किन्तु उसे बीच में ही विषाद करना पड़ता है । [५९] इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार का पार पाना चाहते हैं, किन्तु वे संसार में ही अनुपर्यटन करते हैं । -ऐसा मैं करता हूँ । | अध्ययन-१ उद्देशक-३ [६०] श्रद्धालु पुरुष आगंतुक भिक्षु की इच्छा से जो कुछ भी भोजन पकाता है, हजार घरों के अन्तरित हो जाने पर भी उपभोग करना उभयपक्षों का ही सेवन है । [६१] वे अकोविद भिक्षु इस विषमता को नहीं जानते । विशाल-काय मत्स्य जल के किनारे आ जाते है । [६२] जल के कम हो जाने पर किनारा शीघ्र सूख जाता है । तब आमिषभोजी ध्वक्षि और कंक पक्षियों द्वारा वे दुःखी होते हैं । [६३] वर्तमान सुख के अभिलाषी कुछ श्रमण भी इसी प्रकार विशालकाय मत्स्यों के समान अनन्तबार मृत्यु की एषणा है ।। [६४] यह एक अन्य अज्ञान है । कुछ दार्शनिक यह कहते हैं कि यह लोक देव उत्पादित है तो कुछ कहते हैं ब्रह्मा द्वारा उत्पादित है ।। [६५] कुछ कहते हैं-जीव-अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से सम्पृक्त यह लोक ईश्वर-कृत है । कुछ अन्य ईसको प्रधान/प्रकृति कृत कहते हैं ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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