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प्रति, मित्रों के प्रति, उपकारियों के प्रति, सामान्य से सम्यग् दर्शनादि को पा कर मोक्षमार्ग पर रहे हुए जीवों के प्रति, मिथ्यात्व आदि की वजह से जो मोक्षमार्ग से बाहर स्थित है ऐसे जीवों के प्रति, पुस्तक आदि
मोक्षमार्ग के साधनों के प्रति, हथियार आदि उन्मार्ग के साधनों के प्रति जं किंचि वितह-मायरियं अणायरियव्वं अणिच्छियव्वं पावं पावाणुबंधि सुहमं वा बायरं वा मणेण वा वायाए वा काएण वा कयं वा कारियं वा अणुमोइयं वा रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा, एत्थ वा जम्मे जम्मतरेसु वा,
जो कोई भी स्व-पर अहितकारी विपरीत आचरण किये है, जो कि आचरण करने योग्य नहीं थे, चाहने योग्य भी नहीं थे, जो पाप का कारण होने से स्वयं पाप थे, पापों की ही रूचि से जन्मे होने के कारण पापों की लंबी परंपरा चलाने वाले पापानुबंधी आचरण थे; फिर भले ही वे सूक्ष्म- झट से ध्यान में न आने वाले थे या बादर- स्पष्ट पता चल जाने वाले थे; मन से, वचन से या काया से; स्वयं किये थे, औरों से करवाये थे, या औरों की अनुमोदना स्वरूप थे; राग से या द्वेष से या मोह से किये थे; इसी जन्म में किये थे या पिछले जन्मों
में किये थे; गरहियमेयं दुक्कडमेयं उज्झियव्वमेयं, विआणियं मए कल्लाणमित्त-गुरुभयवंत-वयणाओ,
वे सब मेरे आचरण गर्हित-निंदित, जुगुप्सित थे; धर्मबाह्य होने से वे सारे के सारे दुष्कृत, गलत कार्य थे; अतः त्यागने छोड़ देने योग्य है, ऐसा
मुझे मेरे कल्याण-मित्र गुरूभगवंत के वचनों से पता चला है. एवमेयं ति रोइयं सद्धाए, अरहंत-सिद्ध-समक्खं गरहामि अहमिणं दुक्कडमेयं उज्झियव्वमेयं
'यह सब ऐसा ही है इस तरह मुझे निर्मल श्रद्धा से दिल में रुचा है,
परमात्मा की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ ति है.