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श्री अरनाथ भगवान
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चैत्यवंदन रागद्वेषारि हणी, थया अरिहंत जेह. अर जिनेश्वर वंदतां, कर्म रहे नहीं रेह. आतमना उपयोगथी, रागद्वेष न होय; सर्वकार्य करतां थकां, कर्म बंध नहीं जोय. आत्मज्ञान प्रकाशथी ए, मिथ्यातम पलटाय; बुद्धिसागर आत्ममां, सहु शक्ति प्रगटाय.
२
३
अर०१
स्तवन अरनाथकुं सदा मोरी वंदना रे, मेरे नाथकुं सदा मोरी वंदना. जग उपकारी घन ज्यों वरसे, वाणी शीतल चंदना. रूपे रंभा राणी श्री देवी, भूप सुदर्शन नंदना. भाव भगति शुं अहनिश सेवे, दुरित हरे भव फंदना. छ खंड साधी भीति द्वेधा कीधी, दुर्जय शत्रु निकंदना. 'न्यायसागर' प्रभु सेवा-मेवा, मागे परमानंदना.
अर०२
अर०३
अर०४
अर०५
स्तुति कर्म करो पण कर्मथी, रहो निर्लेप भव्यो, जिन थातां परमार्थनां, थातां कर्तव्यो; जैन दशामां कर्मने, करो स्वाधिकारे, अर जिनवर एम भाखता, शक्ति प्रगटे छे त्यारे.१
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