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कूडक्कयअलिएणं, परपरिवाएण पिसुणयाए य। विगलिंदिएसु जीवा, वच्चंति पियंगुवणिओ व्व।। भव-भावना १८७-१८८ ।।
जिनधर्म के प्रति उपहास के कारण, कामासक्ति, हृदय की शठता, उन्मार्गदेशना, क्रीड़ा-हास्य, कूट-माया पूर्वक लेन-देन, झूठ, परपरिवाद-निंदा, चुगलखोरी से प्रियंगु वणिक की तरह जीव विकलेन्द्रियों- द्वीन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय और चउरिन्द्रियपने में पैदा होते हैं।
कज्जत्थी जो सेवइ मित्तं, कज्जे उ कए विसंवयइ। कूरो मूढमइओ, तिरिओ सो होइ मरिऊणं ।।
जो स्वार्थ सिद्धि के समय तो मित्र के आगे-पीछे घूमता है मगर स्वार्थ पूरा हो जाने पर उसी मित्र की निंदा करता है ऐसा स्वार्थी, क्रूर, मूढमति व्यक्ति मरकर तिर्यंच गति में पैदा होता है। चउहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणिय आउयत्ताए कम्मं पगरेंति तंजहा-माइल्लताए। नियडिल्लताए। अलिवयणेणं। कूडतूल-कूडमाणेणं ।। स्था. ४/४/३७३।।
चार कारणों से जीव तिर्यंच गति प्रायोग्य आयुष्य कर्म बाँधते हैं-(१) मायाकूड, कपट से, यानि कुटिलता भरे व्यवहार के कारण। (२) निकृति-ढोंग करते हुए दूसरों को ठगने के कारण। (३) अलिक वचन-झूठ बोलने के कारण। (४) कूटतौल-कूटमान-व्यापार, व्यवहार में झूठे माप तौल से।
चित्र-विचित्र नारकी संसार कभी-कभी जीव जाने अंजाने तीव्र-भाव पूर्वक क्रियमाण महाहिंसा, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय जीवों का वध, मासंभक्षण, परस्त्रीगमन, चोरी, अत्यंत आसक्ति आदि घोर पाप-कृत्यों के कारण नरकभूमि प्रायोग्य आयुष्य कर्म को बाँध लेता हैं; परिणामतः उसे नरकभूमि पर जन्म धारण करना पड़ता है। नरकभूमियाँ सात हैं
(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पङ्कप्रभा, (५) धूम्रप्रभा, (६) तमःप्रभा, (७) महातमःप्रभा।
किसी-किसी ग्रंथ में सातों नरक-भूमियों के उपरोक्त नामों को गोत्रनाम के रूप में सूचित किया गया है; और नामों के रूप में निम्न सात नाम दिए हैं * छोटे पाप की उपेक्षा मत करो, उसी में बड़े पाप के बीज पड़े हुए हैं. ४