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श्री त्रिभंगीसार जी
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भजन-२०
हे भव्यो आतम ही है सार। निज स्वभाव में लीन रहो तो, छूट जाये संसार ॥ १. इस शरीर से भिन्न जीव तुम , करलो स्वयं विचार । ___ काल अनादि से भूलस्वयं को, भुगते दुःख अपार...हे... २. धन शरीर परिवार के पीछे , मरे हजारों बार।
अपनी सुरत कभी नहीं आई , देखलो दृष्टि पसार...हे... ३. सद्गुरु अब तो जगा रहे हैं , अपनी ओर निहार ।
निज शुद्धात्म तत्व को देखो,यही उपदेश शुद्ध सार...हे... ४. समयसार का सार यही है , यही ज्ञान समुच्चयसार ।
ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम , स्वयं के तारण हार...हे...
आध्यात्मिक भजन भजन-२२ जीते जी मर जाओ अब तो, करलो दृढ श्रद्धानरे। देखो सब शुभ योग मिले हैं,हो जाये कल्याण रे॥ त्रिकाली पर्याय क्रमबद्ध , होना है और हो ही रहा । आना जाना सब निश्चित है, खोने वाला खो ही रहा । तुमको किससे क्या मतलब है , तुम हो सिद्ध समान
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स्वारथ का संसार है सारा , आयु तक रिश्तेदारी । बिन स्वारथ कोई बात न पूछे,देखलो सब दुनियादारी॥ इक दिन सब कुछ छोड़ना होगा,निकल जायेंगे प्राण
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किसी को न अब देखो भालो,कोई से न बोलो चालो। करना धरना बंद करो सब, निज सत्ता को अपना लो। इस शरीर का पीछा छोड़ो, करो स्वयं का ध्यान रे.... तुम्हरे चाहे से कुछ नहीं होता, न तुम कुछ भी कर सकते
होना है वह क्रमबद्ध निश्चित, अपने मोह से खुद मरते
भजन-२१ स्वयं सिद्ध भगवान, कैसे हो रहे हो। निज सत्ता को लखो, समय क्यों खो रहे हो। तुम अनंत चतुष्य धारी , हो रत्नत्रय भंडारी। खुद बने हुए अनजान , व्यर्थ में रो रहे हो...निज... तुम शुद्ध बुद्ध अविनाशी , हो सिद्ध परमपद वासी। अब करो भेदविज्ञान , पड़े क्यों सो रहे हो...निज... यह धन शरीर सब जड़ हैं , औदायिक भाव भी पर हैं। प्रगटाओ केवलज्ञान , क्यों कपड़े धो रहे हो...निज... तुम ज्ञानानंद स्वभावी , ब्रह्मानंद ध्रुव अविनाशी। खुद महावीर भगवान , क्यों पत्थर ढो रहे हो...निज...
दृढ़ता से ही काम चलेगा , करो भेदविज्ञान रे.... ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम , देख रहे और जान रहे। धन शरीर सब जड़पुद्गल हैं,अब भी क्यों नहीं मान रहे ।। किसी से कुछ न लेना देना , स्वयं ही हो भगवान रे.... निजानंद में रहो निरंतर , अब किससे क्या काम है। ब्रह्मानंद की करो साधना , सहजानंद ध्रुव धाम है। ज्ञानानंद रहो अपने में, प्रगटे केवल ज्ञान रे....
अशुभ राग आकुलता और विकल्प पैदा करता है।