________________
१३६
आध्यात्मिक भजन
श्री त्रिभंगीसार जी
भजन-६ मत निकलो तो, यों ही चले जाओगे ।
अपनी करनी का, परभव में फल पाओगे। १. साथ में कुछ भी जावे नहीं पुत्र धन ।
छोड़ कर इक दिन जाना पड़ेगा यह तन ॥
बिन संयम के दुर्गति में विल्लाओगे...अपनी... २. पाप परिग्रह को छोड़ो तजो मोह राग। संयम तप को धारो बनो वीतराग।
इससे सद्गति में जाओ और सुख पाओगे...अपनी... ३. न किया व्रत संयम न दान ही दिया । लोभ मोह में फंसकर खूब पाप ही किया।
दुःख भोगोगे दर दर में ठुकराओगे...अपनी... ४. पाया मानुष जनम सब शुभ योग मिले। किया क्या यहां आकर कहां हो पिले ॥
क्या होगा अपना ऐसे में कहां जाओगे...अपनी... ५. दशरथजी गोकुल गुलाब सब ही गये। दाजी भी अंत में यही कह गये ॥ ज्ञानानंद जल्दी संभलो वरना फिर पछताओगे...अपनी...
भजन-७ हे भवियन तुम जिननाथ स्वयं । शुद्ध बुद्ध अविनाशी चेतन , ममलं ममल धुवं॥ १. निज सत्ता शक्ति को देखो, कहां फंसे मोहं।
अनंत चतुष्टय शक्ति तुम्हारी , रत्नत्रय मयं...हे... २. होना जाना कुछ भी नहीं है ,भगा रहे हैं करम ।
सिद्धस्वरूपी शुद्धातम तुम,निजस्वभाव धरम...हे... ३. ज्ञायक ज्ञाता दृष्टा हो तुम,छोड़ो अब तो अहं ।
लीन रहो निज शुद्धातम में , सोहं अयं जयं...हे... ४. ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम ,अपना परम पदम् ।
ब्रह्मानंद रहो अपने में , जय जय जय जयं...हे...
भजन-८ जगत की क्षणभंगुर लीला। माया काया सब नश्वर है, क्यों होता ढीला॥
सब संसार असार देख ले , कौन यहां अपना। जिनके पीछे मरा जा रहा , मात्र दिवा सपना॥ तू है एक अखंड अविनाशी,जीव तत्व चेतन । धनशरीर सब जड़ पुद्गल हैं, करता क्यों वेदन । निजस्वभाव को भूल जगत का, कर्ता बनता है। होना जाना सब निश्चित है , खुद को हनता है। ज्ञानानंद स्वभावी है तू , देख जरा खुद को। निजसत्ता को जागृत करले,छोड़ दे यह वुत को।
जीव की सम्यकदर्शन ज्ञान चारिश रूप विशुद्धि को धर्म कहते हैं। मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र रूप संक्लेश परिणाम को अधर्म कहते हैं।
४.