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श्री त्रिभंगीसार जी
भव्यत्व शक्ति की प्रगटता होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भावरूप निज परमात्म द्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् अनुचरण रूप पर्याय से परिणत होता है । इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव या क्षायिक भाव कहते हैं; किंतु अध्यात्म की भाषा में उसे शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम शुद्धोपयोग आदि कहते हैं।
निश्चय नय से तो आत्मा पर द्रव्य से भिन्न और स्वभाव से अभिन्न स्वयं सिद्ध वस्तु है । जिसे भेदज्ञान पूर्वक ऐसे अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव प्रमाण श्रद्धान- ज्ञान हो जाता है वहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र पूर्वक मोक्षमार्ग आरम्भ हो जाता है तथा जिसे अपनी आत्मानुभूति नहीं हुई, आत्मा का श्रद्धान- ज्ञान नहीं हुआ उसे व्यवहार रत्नत्रय सच्चे देव-गुरू-धर्म की श्रद्धा, सात तत्वों का ज्ञान और संसार के दुःखों से भयभीतपने रूप पाप विषय कषायों से निवृत्तिपूर्वक अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति का उपाय बताया जाता है । दोनों का अभिप्राय अपने आत्मगुण प्रगट करके परमात्मा बनने का है, इसमें कोई विरोध नहीं है, लक्ष्य और अभिप्राय सही हों तो दोनों कार्यकारी हैं।
मूल में आत्मा की भावना से ही कर्मास्रव का निरोध होता है, और यह तीनों सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यग्चारित्र आत्मा के गुण हैं, इन तीनों भाव से कर्मास्रव का निरोध होता है।
४. संमिक् संजम, संमिक् तप, संमिक परिनें : तीन भाव गाथा-४९
संमिक् संजमं तवं चिंते, संमिक् परिनै तं धुवं । सुद्धात्मा चेतना रूवं, जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥
अन्वयार्थ - (संमिक् संजमं तवं चिंते ) सम्यग्दर्शन सहित संयम की भावना करना, सम्यक्दर्शन सहित तप की भावना करना, (समिक् परिनै तं ध्रुवं ) सम्यक्दर्शन सहित पारिणामिक भाव जो अपना ध्रुव स्वभाव है, उसमें परिणमन करना (सुद्धात्मा चेतना रूवं) यह तीनों शुद्धात्मा का चैतन्य स्वरूप है ( जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं ) इन तीनों भावों का साधक शुद्ध दृष्टि है - ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।
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गाथा- ४९
विशेषार्थ - संयम का स्वरूप इस प्रकार कहा है- व्रतों का धारण, समितियों का पालन, कषायों का निग्रह, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग और पाँचों इन्द्रिय तथा मन पर विजय, इसे संयम कहा गया है। अपने स्वरूप में स्थिर होकर आत्मानुभव करना सम्यक् संयम है; क्योंकि सम्यक्दर्शन के बिना स्वरूप में भले प्रकार स्थिर भाव नहीं रहता । जो व्रत व संयम सहित अपने निर्मल आत्मा का अनुभव करता है वह शीघ्र ही सिद्ध सुख को पाता है ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है ।
मोक्षमार्ग में नित्य उद्योगशील साधुओं को शारीरिक, वाचनिक, मानसिक ताप की शांति के लिए अथवा सहज शारीरिक और आगन्तुक दुःखों के विनाश के लिए तप रूपी समुद्र में स्नान और अवगाहन करना चाहिए।
अनशन (उपवास), ऊनोदर, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश यह छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित, विनय, वैय्याव्रत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान यह छह अन्तरंग तप हैं । इन बारह तपों के द्वारा मन-वचन-काय को स्थिर करके सम्यग्दर्शन सहित अपने ही आत्मस्वरूप में एकतान होकर तपना सो सम्यक् तप है । इच्छा निरोध रूप अमृत ही तप का शरीर है। तप का मूल सम्यग्दर्शन है, तना दस धर्म है; शाखा बारह भावना है; पत्र पंच महाव्रत- पंच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ हैं; पुष्प केवलज्ञान है, हवाएं बाईस परीषह जय हैं, फल घाति-अघाति कर्म का क्षय सिद्ध पद है ।
सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध जीव तत्व नाम के पारिणामिक भाव में परिणमन करना रमण करना सम्यक् परिनै है ।
आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का पर के आकार से रहित रूप से संवेदन होता है उसे ही स्वसंवेदन कहते हैं; जो स्वसंवेदन से सिद्ध है उसे अनुभव सिद्ध कहते हैं।
कहने को तो यह तीन भाव हैं परन्तु वास्तव में यह तीनों ही शुद्धात्मा का एक चैतन्यमयी स्वानुभव रूप भाव है। आत्मा में लीन होना ही संयम है, वही तप है, वही स्व परिणमन है, इसी से कर्मास्रव का निरोध होता है। इसकी साधना करने वाला शुद्ध दृष्टि है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
सच्चा धर्म वही है जो राग-द्वेष से रहित पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कहा गया है । निश्चय से वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे आत्मा का चैतन्य