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________________ ७७ गाथा-४४ श्री त्रिभंगीसार जी २. चारित्र मोहनीय-२५ कषायोदय वश पच्चीस प्रकार के तीव्र संक्लेश भाव होना। आयुकर्म के आसव भाव - १. नरकायु- बहु आरम्भ-प्रचुर पापपूर्ण क्रियाओं में तीव्र प्रवृत्ति होना। ___ बहुपरिग्रह-अति तीव्र मूर्छापूर्ण पाप बहुल परिणाम में लोभ करना। २.तिर्यंचायु- मायाचारी, तीव्र छल कपटपूर्ण विश्वासघात, कुटिल स्वभाव । ३. मनुष्यायु- अल्पारंभ-आवश्यक क्रिया में भी थोड़ा आरम्भ करना । अल्पपरिग्रह-संतोषपूर्ण वृत्ति, थोड़ी मूर्छा होना। मृदु स्वभाव-सरल, कोमल, शान्त, सहज स्वभाव होना। ४. देवायु- सराग संयम-मुनिधर्म के संयम में विशेष रुचि, साधु होना। संयमासंयम-श्रावक धर्म के चारित्र में रुचि; व्रत, प्रतिमादि पालन करना। अकाम निर्जरा-पराश्रित,कष्टपूर्ण जीवन में भी समता शांति रखना। बाल तप-अज्ञानता पूर्ण व्रत, तप आचरण करना। सम्यक्त्व-निर्दोष सम्यग्दर्शन का पालन करना। नामकर्म के आम्रव भाव१. अशुभ नाम-योगवक्रता, मन-वचन-काय की कुटिलता और अन्यथा प्रवृत्ति करना। विसंवादन -मिथ्याचार पूर्वक व्यर्थ चर्चा, उठा-पटक करना। २. शुभ नाम-सरल सुप्रवृत्ति, मन-वचन-काय की सरल प्रवृत्ति शुभ योग होना । तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण-सोलह कारण भावना भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता अन्तराय कर्म के आसव भाव दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करना सो अन्तराय कर्म के आसव का कारण है। अज्ञानी जीव को जो मोह, राग, द्वेष रूप आसव भाव हैं वह उन्हें नष्ट करने की चिंता नहीं करता बल्कि बाह्य क्रिया तथा बाह्य निमित्त को दूर करने का उपाय करता है; किन्तु इनके मिटने से ही आस्रव नहीं मिटते । द्रव्यलिंगी मुनि, अन्य कुदेवादि की सेवा नहीं करता, हिंसा तथा विषयों में प्रवृत्ति नहीं करता, क्रोधादि नहीं करता तथा मनवचन-काय को रोकने का भाव करता है तो भी उसको मिथ्यात्वादि चार आस्रव होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जो बाह्य शरीरादि की क्रिया है, वह आस्रव नहीं है अपितु अन्तरंग अभिप्राय में जो मिथ्यात्वादि रागादिक भाव हैं वही आस्रव है। जो जीव उसे नहीं पहिचानता उसे आस्रव तत्व का यथार्थ श्रद्धान नहीं है। सम्यग्दर्शन हुए बिना आसव तत्व किंचित् मात्र भी दूर नहीं होता इसलिए जीवों को प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का यथार्थ उपाय करना चाहिए । सम्पदर्शन, सम्यक्झान के बिना किसी भी जीव के आसव दूर नहीं होते और न ही धर्म होता है। 3. आहार, निद्रा, भय : तीन भाव गाथा-४४ आहारं असुद्धं भावं, निद्रा मिथ्यात भूतयं । भावं सुद्ध तिक्तं च, त्रिभंगी संसार भाजनं ॥ अन्वयार्थ-(आहारं असुद्धं भावं ) आहार करने के भाव अशुद्ध भाव हैं (निद्रा मिथ्यात भूतयं) निद्रा, सोने का भाव प्रमाद, यह मिथ्यात्व का भूत है (भावं सुद्ध तिक्तंच)भावों की शुद्धि को छोड़कर कर्मोदय से भयभीत रहना (त्रिभंगी संसार भाजनं ) यह तीनों भाव संसार के पात्र बनाने वाले कर्मास्रव के कारण हैं। विशेषार्थ- जब तक जीव को आहार, निद्रा और भय के भाव होते हैं तब तक कर्मासव होता है और यह तीनों भाव संसार का पात्र बनाने वाले हैं। आत्मा के जिस परिणाम से कर्म आते हैं उसे भावासव जानों तथा कर्मों का आना द्रव्यास्रव कहलाता है। जिसका राग प्रशस्त है अर्थात् जो पंच परमेष्ठी के गुणों में ,उत्तम धर्म में गोत्र कर्म के आसव भाव१. नीच गोत्र-परनिंदा, निन्दक प्रवृत्ति, आत्मप्रशंसा- अपने मुँह अपनी बड़ाई करना । सद्गुणोच्छादन-दूसरों के उत्तम गुणों को ढांकना, कभी किसी की प्रशंसा नहीं करना। असदोद्भावन-दूसरों की बुराई निन्दा करना उनके अवगुणों को प्रगट करना। २. उच्चगोत्र-आत्मनिन्दा-अपनी गल्तियों का ध्यान रखना, अपने दोष न छिपाना । पर प्रशंसा-दूसरों के गुणों को ग्रहण करना, प्रशंसा करना। अपने गुण ढांकना-कभी अपने मुख से अपनी प्रशंसा न करना। परगुण प्रकाश-दूसरों के गुणों की सदैव प्रभावना, प्रशंसा करना। विनीत वृत्ति-स्वाभाविक विनय भाव होना । अनुत्सेक-गुणी होकर भी निरभिमानी, विनम्र होना।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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