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श्री त्रिभंगीसार जी से अतीन्द्रिय आनन्द, जन्म-मरण से छुटकारा, भय-चिन्ता, दु:खों से मुक्ति, तीन लोक में जयजयकार, परमानंद परमात्मपद की प्राप्ति होती है। अब किस ओर जाना है? यह निर्णय कर लो, जिस तरफ की रुचि होगी उधर का वैसा फल मिलेगा, दोनों में अत्यंत विरोध है।
आत्मानुभूति से अतीन्द्रिय आनंद अनुभव में आता है। आत्मानन्द का प्रभाव बुद्धि को सुखमय स्वस्थ एवं संतृप्त कर देता है।
साधक को आत्मध्यान का अभ्यास करने से मोह से मुक्ति मिलती है। माया का चक्कर छूट जाता है। ध्यानजनित आनंद की अनुभूति होने पर व्यक्ति को भौतिक जगत में कुटिलता, घृणा, स्वार्थ, परिग्रह, विषय भोग आदि नीरस एवं निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं।
39. कषाय, राग, मिस : तीन भाव
गाथा-३९ अनन्तानु कषायं च,रागादि मिस्र भावना।
दुण्य कर्म विधते तत्र, त्रिभंगी दुर्गति कारनं ॥ अन्नवार्य-(अनन्तानु कषायं च)अनंतानुबंधी कषाय और (रागादि मिस्र भावना ) रागादि सहित मिश्र भावना (दुष्य कर्म विधंते तत्र) जहाँ यह कषाय राग और मिश्रभाव होते हैं वहाँ दु:ख रूप कर्मों की वृद्धि होती है अर्थात् पापकर्म का बन्ध होता है (त्रिभंगी दुर्गति कारनं ) यह तीनों भाव दुर्गति के कारण हैं। विशेषार्थ-अशुद्ध परिणामों से बन्ध होता है, वे परिणाम राग-द्वेष-मोह हैं। उनमें से मोह और द्वेष तो अशुभ भाव हैं। राग भाव शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। संसार के प्रति रुचि होना मोह भाव है, यह अशुभ भाव है। क्रोध, मान व अरति, भय, शोक, जुगुप्सा के उदय से पर में द्वेषभाव होता है, यह भी अशुभ भाव है। द्वेष से परिणाम संक्लेश रूप रहते हैं, मोह से मलिन रहते हैं। मोह और द्वेष तो पाप बन्ध के ही कारण हैं।
लोभ, माया कषाय तथा हास्य ,रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद के उदय से रागभाव होता है। यह रागभाव जब विषय-कषायों की पुष्टि के लिये होता है तब वह अशुभ राग है और पाप बन्ध का कारण है। जब कषायों का मन्द उदय होता है तब पंच परमेष्ठी की भक्ति, पूजा-दान, परोपकार, जप, स्वाध्याय, संयम आदि शुभ कार्यों को करने की आकांक्षा होती है, इसे शुभ रागभाव कहते हैं इससे पुण्य का बन्ध होता है। शुभ भाव, अशुभभाव दोनों ही बन्ध के
गाथा-३९ कारण हैं। यही राग-द्वेष-मोह भाव जब अनन्तानुबंधी कषाय के उदय सहित होते हैं तब उनको मिश्र भाव कहते हैं । साधारण रूप से मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी मिश्र भावों में फँसा रहता है।
अशुभ राग, आकुलता और विकल्प पैदा करता है। शुभराग संसार की वृद्धि करता है, जीव को बेसुध करता है। जहाँ जिससे जितना राग होगा वहाँ उतना ही देष भाव किसी न किसी से होगा।
रागभाव- अहंकार, चाह और विकल्प पैदा करता है। द्वेषभावक्रोध, ईर्ष्या विरोध पैदा करता है। मोहभाव- भय, शंका, चिन्ता पैदा करता है। मोह के सद्भाव में जीव मूर्च्छित रहता है।
राग के सद्भाव में मदहोश, पागल रहता है । द्वेष के सद्भाव में अन्धा रहता है। पाप के सद्भाव में भयभीत रहता है । यह तीनों भाव कषाय, राग और मिश्रभाव दु:ख, दुर्गति और संसार के कारण हैं।
प्रश्न-अनन्तानुबंधी कषाय तो मिथ्यादृष्टि को होती है फिर यहाँ साधक को अनन्तानुबंधी कषाय सहित राग और मिश्रभाव होने का क्या प्रयोजन है? समाधान-मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधी कषाय मूल में है तथा इसके साथ ही अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन का भी उदय है। उसे छहों लेश्या का सद्भाव है इसलिए मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी साधु नवमे ग्रेवैयक तक चला जाता है।
साधक को उपशम सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी का भी उदय आता है। उस दशा में रागादि मिश्र भाव सहित कर्मास्रव होता है। यहाँ इसी अभिप्राय से सावधान किया है कि कोई साधक ज्ञानी होकर यह न मान ले कि मुझे कर्मासव-बन्ध होता ही नहीं है।
जब तक इन भावों में बहाव है तब तक कासव बन्ध होता है। यदि यह ज्ञान नहीं है तो वह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ही नहीं है।
जो आत्मा राग-द्वेषादि सभी दोषों को छोड़कर अपने आत्मा के स्वभाव में लीन होता है वही संसार सागर से तरता है, यही धर्म है। ज्ञान स्वभाव में उपयोग लगाकर स्वभाव सन्मुख रहना बड़े ही विवेक पुरुषार्थ की बात है, जो साधुपद प्राप्त होने पर ही हो सकता है; किन्तु ऐसा उपयोग न लगने पर भाव-विभाव, क्रिया, कर्म होते हैं जिनका जिम्मेदार, कर्ता, भोक्ता स्वयं है तथा इससे ही कर्मबन्ध होता है।