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गाथा-३५ इस तरह तीन प्रकार चेतन स्त्रियों के निमित्त से मन में विकार का होना, वचनों से हास्यादि करना, शरीर से कुचेष्टा करना, पापबन्ध का कारण है । एकांत में स्वमाता, बहिन, पुत्री से भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए और न ही मिलना चाहिए। रागभाव से कर्मास्रव और बन्ध होता है। प्रश्न-धर्म मार्ग पर चलने वाले साधु-साधक का इन काम भावों से क्या सम्बन्ध
है?
श्री त्रिभंगीसार जी २७. मनुष्यनी, तिर्यचनी, देवांगना: तीन भाव
गाथा-३५ मनुष्यनी व्रत हीनस्य,तिर्यचनी असुह भावना।
देवांगनी मिच्छ दिस्टीच,त्रिभंगी पतितं दलं ॥ अन्नवार्य-(मनुष्यनी व्रत हीनस्य) जिसको ब्रह्मचर्य का कोई एकदेश व सर्वदेश व्रत नहीं है वह स्त्री के संबंध में काम भाव करता है (तिर्यंचनी असुह भावना) काम भाव की अशुभ भावना से कभी किसी पशु को देखकर काम विकार करता है या पशुओं की कामक्रीड़ा देखकर आनंद मानता है (देवांगनी मिच्छ दिस्टी च ) मिथ्यादृष्टि विषय सुख का रागी पुण्य के फल से देवांगना का भोग चाहता है (त्रिभंगी पतितं दलं) यह तीनों प्रकार की स्त्रियों के भाव दुर्गति में ले जाने वाले हैं।
विशेषार्थ-स्त्री, धर्म को विध्न करने वाली है, मोक्षमार्ग में चलने से रोकने वाली है, दु:खों का कारण है व सुखों को नाश करने वाली है। काम विकार उत्पन्न करने में कारण स्त्रियों के तीन प्रकार यहाँ बताये गये हैं जिनमें रागभाव करने से कर्मासव होता है। रागी जीव कामभाव से निरंतर महिलाओं के रूप को देखता है, मोहित होकर उनके साथ हास्य, कौतूहल, वार्तालाप करता है। किसी तरह उनको वश में करके उनसे कामरति करता है, व्रतहीन, निरर्गल होकर मनमानी करता है। व्रती सभी स्त्रियों को माता,भगिनी, पुत्री के समान देखता है। एक देश व्रती स्व-स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों में विकार रहित बुद्धि रखता है। अव्रती मिथ्यात्वी को विवेक नहीं होता; वह कामभाव में फँसकर स्व-स्त्री, पर-स्त्री, वेश्या, कन्या आदि का भेद न करके उनसे राग बढ़ा लेता है।
तिर्यंचनी पशु के शरीरों को देखकर भी कामी के मन में कामविकार उत्पन्न हो जाता है; कोई-कोई निन्दित मानव कभी काम चेष्टा भी कर लेता है। इसी तरह मिथ्यात्वी काम भोग का आतुर स्वर्गादि में देवियों का रूप-लावण्य, हावभाव, विलास, विक्रिया सुनकर यह लालसा मन में बाँध लेता है कि मैं देवगति में पैदा होकर मनोहर रूपवान देवियों के साथ क्रीड़ा करूँ । वह देवी देवताओं के रागभाव की कथा सुनकर उसमें रस लेता है, अनुमोदना करता है।
समाधान-कामवासना मनुष्य की प्राथमिक भूमिका है क्योंकि मनुष्य का जन्म कामवासना से ही होता है। काम, कामवासना और कामना जीव की आंतरिक वृत्ति है। जब तक यह समूल नष्ट नहीं होती तब तक इनका अंकुरण-वृद्धि होती ही रहती है।
जो जीव काम, कामवासना और कामना का शमन करके, उसे समूल नष्ट करके धर्म मार्ग पर चलता है, वह अपने जीवन में श्रेष्ठता को उपलब्ध होता है। उसका ब्रह्मचर्य ही सच्चा है जो ब्रह्म स्वरूप को उपलब्ध कराता है।
जो जीव इनका दमन करके, धर्म मार्ग पर चलते हैं उनका जीवन बड़ा विषम और पतित हो जाता है क्योंकि दबी हुई वासनाऐं जहर हो जाती हैं। दबा हुआ चित्त बुरी तरह कामुक हो जाता है। साधु-साधक कोई भी हो जिसने काम, कामवासना और कामना को दबाया है उसको उपवास करते-करते, सामायिक करते, शास्त्र पढ़ते, अध्ययन-मनन, स्वाध्याय करते हुए भी काम भाव पेरता रहता है। कामवासना को जितना वह दबाता है, वासना उतना ही नया रूप धारण करती है और यह नये रूप विकृत होते चले जाते हैं।
वासना बड़ी गहरी है और उसकी गहराई को बिना समझे जो उसके साथ कुछ भी करने में लग जाता है, व्रत संयम आदि ले लेता है वह झंझट में पड़ जाता है। सभी सिद्धांत ऊपर रह जाते हैं, कामवासना गहरी पैठ रखती है। आप ऊपर से प्रभावित होते हैं, निर्णय और संकल्प ले सकते हैं, वे सभी निर्णय कागज के लेबिल की तरह आर चिपके रह जाते हैं।
इसीलिए ज्ञानपूर्वक अपना अन्तर शोधन करना आवश्यक है तब ही कर्मास्रव से बचकर मुक्ति हो सकती है।