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श्री त्रिभंगीसार जी स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है इसलिए कृष्णादि तीन लेश्या से पर की हानि करने का दुष्ट विचार करता रहता है। २. मृषानन्दी-असत्य बोलकर, बुलवाकर व सम्मति देकर प्रसन्न होना, मिथ्यादृष्टि मन,वचन,काय की कुटिलता पूर्वक अपने स्वार्थ को साध्य बना करके झूठ का जाल बिछाकर पर प्राणियों को फाँस लेता है और अपनी इस चतुराई से बड़ा प्रसन्न होता है। ३.पौर्यानन्दी-चोरी करके, चोरी करवाकर व सम्मति देकर आनन्द मानता है। मिथ्यादृष्टि धन का लोलुपी विश्वासघात करता है। जिस तरह बने पर की सम्पत्ति को हर लेने में संतोष मानता है। १.परिग्रहानन्दी-परिग्रह बढ़ाने में, बढ़वाने में, तथा बढ़ते हुए परिग्रह को देखकर आनन्द मानता है। मिथ्यादृष्टि धनादि परिग्रह का तीव्र मूर्छावान होता है; अतएव परिग्रह संग्रह में एवं परिग्रह की रक्षा में इतना मग्न रहता है कि धर्म, परोपकार, दानादि कर्म को भूलकर केवल परिग्रह की वृद्धि में ही उन्मत्त रहता है।
इस प्रकार चार रौद्र ध्यान को करने वाला मिथ्यादृष्टि तीव्र अशुभ भावों से नरक आयु बांधकर नरक गति चला जाता है। मिथ्यात्व का अभाव होने पर भी चौथे गुणस्थान में तथा पाँचवें गुणस्थान में रौद्र ध्यान कभी-कभी हो जाता है इसलिए हमेशा सावधान रहना
गाथा-१४ चारों कषायों को जीतने से आर्त रौद्र ध्यान नहीं होते हैं। जो तत्वज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करता है उसको समस्त आचरण अपने वीतराग भाव अनुसार भावित होते हैं। ६. मिथ्यात, समय मिथ्यात, समय प्रकृति मिथ्या : तीन भाव
गाथा-१४ मिथ्या समयं च संपून, समय मिथ्या प्रकासए।
अत्रितं ब्रितं जानंति, प्रकृति मिथ्या निगोदयं ॥ अन्ववार्य-(मिथ्या समयं च संपूर्फ ) मिथ्यात्व से आत्मा का परिपूर्ण होना (समय मिथ्या प्रकासए) समय के मिथ्यात्व का सद्भाव होना (अनितं नितं जानंति) क्षणभंगुर को शाश्वत जानना (प्रकृति मिथ्या निगोदयं ) यह प्रकृति मिथ्यात्व है, यह तीनों भाव निगोद के कारण हैं। विशेषार्थ- मिथ्यात्व- विपरीत मान्यता, शरीरादि में आत्मबुद्धि करना, जीव अनादि काल से अनेक शरीर धारण करता है, पूर्व का छोड़कर नवीन शरीर धारण करता है। आत्मा, जीव और अनंत पुद्गल परमाणुमय शरीर, इन दोनों के पिण्ड बन्धन रूप यह अवस्था होती है, इन सबमें यह ऐसी अहं बुद्धि करता है कि-" यह मैं हूँ"। जीव तो ज्ञानस्वरूप चेतन लक्षण मयी है और पुद्गल परमाणुओं का स्वभाव वर्ण ,रस ,गंध ,स्पर्शादि है जो अचेतन जड़ है। इन सबको अपना स्वरूप मानकर ऐसी बुद्धि करता है कि -"यह मेरे हैं"। हलन-चलन आदि क्रिया शरीर करता है, उसे जीव ऐसा मानता है कि -"मैं कर्ता हूँ।"
अनादि से इन्द्रिय ज्ञान है, बाह्य की ओर द्रष्टि है इसलिए स्वयं अमूर्तिक तो अपने को पता नहीं होता और मूर्तिक शरीर ही पता होता है, इसी कारण जीव अन्य को अपना स्वरूप जानकर उसमें अहं बुद्धि धारण करता है। इसमें आत्मा और शरीर का निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध क्या है ? यह नहीं जानने से यथार्थ रूप से शरीर से स्व की भिन्नता मालूम नहीं होती, यही मिथ्यात्व भाव है। मिथ्यादर्शन की कुछ मान्यताएं
१. स्व पर एकत्व दर्शन ,२. पर की कर्तृत्व बुद्धि, ३. पर्यायबुद्धि, ४. व्यवहार विमूढ, ५. अतत्व श्रद्धान, ६. स्व स्वरूप की भांति, ७. राग व शुभ भाव से आत्मलाभ हो ऐसी बुद्धि, ८. बहिर्दृष्टि, ९. विपरीत रुचि, १०. जैसा वस्तु स्वरूप हो वैसा न मानना और
चाहिए।
तीसरा मिश्रध्यान-आर्त-रौद्र का मिला हुआ रूप तीसरा मिश्रध्यान होता है। उदाहरणत: कोई किसी की हिंसा करना चाहता था, हिंसा का प्रयत्न करने पर भी वह सामने वाला बच जाए
और अपनी हिंसा हो जाए तब हिंसानंदी रौद्रध्यान के साथ अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो जाता है। इसी तरह झूठ बोलकर कार्य सम्पन्न करना चाहता था व चोरी करके धन लेना चाहता था अथवा परिग्रह वृद्धि करना चाहता था परन्तु असफल होने पर शोक करता है, यह रौद्रध्यान मिश्रित आर्तध्यान है। परिग्रह बढ़ाने की तीव्र अभिलाषा से ही दोनों ध्यान मिश्रित होते हैं।
इस तरह यह आर्त-रौद्र-मिश्र भाव तीनों ही संसार भ्रमण करवाने वाले तीव्र आसव के कारण भाव हैं, हिंसा के मूल कारण हैं। पर को तथा अपने को दु:खकारी हैं, इससे तीव्र असाता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है।