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श्री त्रिभंगीसार जी तिस्टते) जो जिह्वा के अग्रभाग पर ठहरा रहता है अर्थात् मात्र चर्चा रूप ऊपरी ज्ञान होता है उसमें अपने स्वरूप की भावभासना या वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है। (छायात्रि उबंकार) ज्ञान आत्मा का गुण है, यह तीनों कुज्ञान उसके छाया रूप आवरण हैं (मिथ्या दिस्टि तत्परा) जो मिथ्यादृष्टि में ही समाये रहते हैं।
(कुमतिं क्रित्वा मिथ्यात्वं) पहला कुज्ञान मिथ्यात्व सहित कुमति ज्ञान है (कुश्रुतं तस्य पस्यते ) वहाँ कुश्रुत ज्ञान भी देखा जाता है अर्थात् कुमति के साथ कुश्रुत ज्ञान होता है (कुअवधि तस्य दिस्टंते) मिथ्यादृष्टि के ही कुअवधिज्ञान देखा जाता है (मिथ्या माया विमोहितं) यह तीनों ज्ञान मिथ्यात्व भाव और मायाचार से मोहित हैं।
विशेषार्थ-पाँच इन्द्रिय और मन के द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं।
मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानना वह श्रुतज्ञान
गाथा-११,१२ सम्यग्दृष्टि का सुअवधि ज्ञान कहलाता है। कारण यही है कि मिथ्यादृष्टि के ज्ञान का फल विपरीत होता है। इन तीनों कुज्ञानों के होते हुए मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषायों के उदय के कारण इस जीव को कर्मों का आसव विशेष होता है।
ज्ञान तो आत्मा के गुण का विकास है इसलिए वह बन्ध का कारण नहीं है; किन्तु ज्ञान के साथ मिथ्यात्व मोह का मिश्रण उसी तरह है जैसे निर्मल जल के साथ विष मिला दिया जाए।
मति और श्रुतज्ञान में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय, यह तीन दोष हैं। अवधिज्ञान में संशय नहीं होता किन्तु अनध्यवसाय अथवा विपर्यय दोनों दोष होते हैं, इसलिए इनको कुमति, कुअवधि ज्ञान कहते हैं।
__ मिथ्यादृष्टि जीव सत्-असत् के बीच का भेद (विवेक) नहीं जानता; इससे सिद्ध हुआ कि प्रत्येक जीव को पहले सत् क्या है ? असत् क्या है
इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके मिथ्याज्ञान को दूर करना चाहिए। विपर्यय-विपरीतता तीन प्रकार की होती है-१. कारण विपरीतता, २. स्वरूप विपरीतता,
३. भेदाभेद विपरीतता १.कारण विपरीतता - मूल कारण को न पहिचानकर अन्यथा कारण को मानना । २. स्वरूप विपरीतता-मूल वस्तुभूत स्वरूप को न पहिचानकर अन्यथा स्वरूप को
मानना। ३. भेदाभेद विपरीतता-जिसे जानता है, उसे यह इससे भिन्न है और इससे अभिन्न है, ऐसी यथार्थ पहिचान न करके अन्यथा भिन्नत्व-अभिन्नत्व को मानना ही भेदाभेद विपरीतता
जो द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय या मन के निमित्त बिना रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
ज्ञान,आत्मा का विशेष गुण है किन्तु मिथ्यात्व सहित होने से यह कुमति, कु श्रुत और कुअवधि ज्ञान कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि का मूल अभिप्राय संसार वासना है उसके अनुभव में आत्मानन्द रस का स्वाद नहीं है, वह संसार में लिप्त है अतएव मतिज्ञान से पदार्थों को जानकर इष्ट पदार्थों में राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वेष करता है। स्त्री पुत्रादि धन-धान्य में तन्मय रहता है, इष्ट पदार्थों के लाभ के लिए न्याय-अन्याय को नहीं गिनता है, पर पदार्थों में अहंकार ममकार रखता है, जबकि सम्यग्दृष्टि की अहंबुद्धि अपने शुद्ध आत्मा के स्वरूप में ही होती है वह किसी भी पर पदार्थ को अपना नहीं मानता है, भीतर से सच्चा वैरागी होता है।
आत्मानुभव की शक्ति मिथ्यादृष्टि को नहीं होती इसलिए उसका सभी मति श्रुत ज्ञान कुमति तथा कुश्रुत ज्ञान कहा जाता है । यह ज्ञान मात्र जिव्हा के अग्रभाग पर ठहरता है अर्थात् मात्र चर्चा करता है। उसे अपने आत्मस्वरूप और वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होता है।
अवधिज्ञान नारकियों और देवों को जन्म से होता है। तिर्यंच या मनुष्यों को, किसी-किसी को तपादि के द्वारा हो जाता है। अवधिज्ञान से अपने व दूसरों के पिछले व अगले जन्म की बातों का ज्ञान हो सकता है। मिथ्यादृष्टि का कुअवधि ज्ञान कहलाता है। वहीं
इन विपरीतताओं को दूर करने का उपाय - १. एक द्रव्य उसके गुण या पर्याय; दूसरे द्रव्य, उसके गुण या पर्याय में कुछ भी नहीं कर सकते । प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने कारण से अपनी पर्याय धारण करता है। विकारी अवस्था के समय पर द्रव्य निमित्त रूप अर्थात् उपस्थित तो होता है किन्तु वह किसी अन्य द्रव्य में कुछ भी नहीं कर सकता।
प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघुत्व नामक गुण है इसलिए वह द्रव्य अन्य रूप नहीं होता, एक गुण दूसरे रूप नहीं होता और एक पर्याय दुसरे रूप नहीं होती। एक द्रव्य के