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श्री त्रिभंगीसार जी के परम शुद्ध स्वभाव में रहना चाहिए, इसी से कर्मासव, आयुबन्ध से बचा जा सकता है। आमव बन्ध में विशेषता का कारण-तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण विशेष और वीर्य विशेष से कर्मास्रव में विशेषता, हीनाधिकता होती है। आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य सातकर्मों का आसव प्रति समय हुआ करता है। कर्मासव से बचने का उपाय- स्व शुद्धात्मा के परम शुद्ध स्वभाव में रहना,सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान ,सम्यक्चारित्र में रत रहना ही कर्मास्रव से बचने का उपाय है। प्रश्न -यह कर्मासव कैसे होता है ? समाधान-इस प्रश्न के समाधान में श्रीगुरु आगे की गाथा कहते हैं१०८ जीवाधिकरण
गाथा-६ त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं, भावं सय अठोत्तरं ।
मिथ्यात मय सम्पून, रागादि मल पूरितं ।। अन्वयार्थ-(त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं) कर्मास्रव की त्रिभंगी प्रवेश कहते हैं (भावं सय अठोत्तरं) एक सौ आठ भाव जीवाधिकरण से कर्मासव होता है (मिथ्यात मय सम्पून) मिथ्यात्व से परिपूर्ण और (रागादि मल पूरितं) रागादि मल से भरे हुए होने से तीव्र कर्मबन्ध होता है।
विशेषार्थ-आत्मा में जो कर्मासव होता है, उसमें दो प्रकार का निमित्त होता है। एक जीव निमित्त और दूसरा अजीव निमित्त । जीव-अजीव का पर्यायी निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध होता है।
जीव-अजीव का सामान्य अधिकरण (निमित्त) नहीं किन्तु जीवअजीव के विशेष (पर्याय) अधिकरण होते हैं।
१. जीवाधिकरण आसव-समरम्भ- समारम्भ-आरम्भ, मन-वचन-काय, कृत कारित-अनुमोदना तथा चार कषाय क्रोध-मान- माया -लोभ की विशेषता से ३xax ३x१०८ भेद रूप हैं।
समरम्भादि तीन भेद हैं। प्रत्येक में मन-वचन-काय यह तीन भेद लगाने से नौ भेद हुए। इन प्रत्येक भेद में कृत-कारित-अनुमोदना तीन भेद लगाने से २७
गाथा-६ भेद हए और इन प्रत्येक में क्रोध-मान-माया-लोभ यह चार भेद लगाने से १०८ भेद होते हैं। यह सब भेद जीवाधिकरण आस्रव हैं।
____ अनन्त संसार का कारण होने से मिथ्यात्व को अनन्त कहा जाता है। उसके साथ जिस कषाय का बन्ध होता है उसे अनन्तानुबंधी कषाय कहते हैं। कषाय के चार भेद होते हैं-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन । अनंतानुबंधी कषाय-जिस कषाय से जीव, स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट न कर सके उसे अनन्तानुबंधी कषाय कहते हैं। अप्रत्याख्यान कषाय-जिस कषाय से जीव एकदेश रूप संयम (सम्यग्दृष्टि श्रावक के व्रत) किंचित् मात्र भी धारण न कर सके उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। प्रत्याख्यान कषाय-जिस कषाय से जीव सम्यग्दर्शन पूर्वक सकल संयम को ग्रहण न कर सके उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। संज्वलन कषाय-जिस कषाय से जीव का संयम तो बना रहे परन्तु शुद्ध स्वभाव में, शुद्धोपयोग में पूर्णरूप से लीन न हो सके उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। समरम्भ-किसी भी विकारी कार्य के करने के संकल्प करने को समरम्भ कहा जाता है। संकल्प दो तरह का होता है- १. मिथ्यात्व रूप संकल्प २. अस्थिरता रूप संकल्प समारम्भ-उक्त निर्णय (संकल्प) के अनुसार साधन मिलाने के भाव को समारम्भ कहा जाता
आरम्भ-उस कार्य के प्रारम्भ करने को आरम्भ कहते हैं। कृत-स्वयं करने के भाव को कृत कहते हैं। कारित-दूसरे से कराने के भाव को कारित कहते हैं। अनुमोदना-जो दूसरे करें उसे भला समझना ही अनुमोदना करना है।
मिथ्यात्व रागादि भाव सहित १०८ प्रकार से कर्मों का आस्रव होता है। यह संसार वर्धक घोर पाप बन्ध का कारण है । जीव का अज्ञान मिथ्यात्व ही कर्मासव का मूल कारण है जिससे वह अनादि से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। प्रश्न -जीव का अज्ञान मिथ्यात्व कर्मासव का कारण है तो कर्मासव के निरोध का उपाय क्या है? समाधान-इसके समाधान में श्री गुरु तारण स्वामी आगे की गाथा कहते हैं