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________________ उत्पत्ति ही नहीं है। समकितीको अन्तर शुद्ध स्वरुपकी दृष्टि और स्वानुभव होने पर स्वयं के अमृत स्वरुप आनन्द सागर भगवान आत्मा का वेदन वर्तता है। ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है। उसने जाना कि मैं सिद्ध के समान शुद्ध ध्रुव तत्वशुद्धात्मा हूँ और एक समय की चलने वाली पर्याय असत् नाशवान तथा समस्त जीवादि द्रव्य सब मेरे से भिन्न हैं। जिसे आत्मा के पूर्ण स्वभाव का अन्तर में विश्वास आया कि मैं ज्ञान - आनन्द आदि अनन्त शक्तियों से भरपूर पदार्थ ह तभी वह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है। जीव का विश्वास अनादि से वर्तमान पर्याय में है। उसने अपने ध्रुव स्वभाव को जाना नहीं है। परन्तु जहां यह पर्याय है वहां ही पीछे गहरे इसी के तल में समूची पूर्ण वस्तु निज ध्रुव तत्व शुद्धात्मा विद्यमान है। जो अनन्त अपरिमित शक्तियों का सागर अनन्त चतुष्टय धारी है। उसका जिसे अन्तर में अनुभव में आये और बुद्धिपूर्वक निर्णय विश्वास हो जाये, उसे सम्यग्यदृष्टि ज्ञानी कहा जाता है। वह यह जानता है कि अभी तक जितने जीव आत्मा - परमात्मा हुए हैं। जिन्होंने सिद्ध पद, देवपना पाया है, वह सब ऐसे ही अपने स्वरुप की अनुभूति युत श्रद्धान - ज्ञानकर अपने स्वरुपकी साधना अर्थात अपने शद्ध स्वभाव में स्थिर लीन होकर ही अरिहन्त - सिद्ध बने हैं। ज्ञानमार्ग के साधक योगी जनों ने अपने स्वरुप की साधना से ही साधुपद और साधुपद से सिद्ध पद पाया है। किसी बाह्य क्रिया कांड या पर के अवलम्बन से सिद्ध पद या मुक्ति नहीं मिलती। इस प्रकार पंडित ज्ञानी जन अपने स्वरुप की साधना करते हैं अर्थात् अपने उपयोग को अपने शुद्ध ममल स्वभाव निज शुद्धात्मतत्व में लगाते। उसी में रमते जमते हैं। उसी का ज्ञान - ध्यान आराधना भक्ति करते हैं। यही उनकी देवपूजा है और इसी से सिद्ध परमपद देवत्वपना प्राप्त होता है। अध्यात्म में सदैव निश्चयनय ही मुख्य है। व्यवहारनय के आश्रय से कभी अंशमात्र भी धर्म नहीं होता, अपितु उसके आश्रय सेतो राग द्वेष के विकल्प ही उपजते हैं। तो शुद्ध निश्चय नय से जिसने अपने सत्स्वरुप को जान लिया है कि सिद्ध के समान केवलज्ञानी अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा के समान मैं भी अनन्त चतुष्टय का धारी परमात्मा हूं। तब वह अपनी वर्तमान पर्याय में जो अशुद्धि है, पूर्व में अज्ञान दशा में जो कर्मों का बंध हो गया है। उनको क्षय करने के लिये अपने परम पारिणामिक भाव ममल स्वभाव ध्रुव तत्वका आश्रय लेता है। अपने देवत्व स्वरुप की साधना - आराधना स्मरण ध्यान कर निज गुणों को प्रगट करता है, इसी से पूर्व कर्म बन्धोदय निर्जरित क्षय होते हैं। यही ज्ञान मार्ग की सच्ची देवपूजा की विधि है। पूर्व में जो ज्ञानी जन सिद्ध मुक्त हुये हैं। वह भी इस साधना से सिद्ध हुये हैं। अपनी कमी को दूर कर पूर्णता को प्राप्त करना ही सच्ची पूजा है। सद्गुरु कहते हैं कि अनेक प्रकार के शुभाशुभ विकल्प करने से कोई कार्यसिद्धि तो नहीं होती। कार्यसिद्धि तो अनन्त आनन्द के सागर ऐसे निज शुद्धात्मा की ओर झुकने उसी में रमने - जमने से होती है। जितनाशुभाशुभ विकल्प और क्रियाकांड में लगना होता है, उस ओर बढ़ते हैं, उतने ही स्वानुभव के मार्गसे भ्रष्ट होते जाते हैं, यह तोस्वयं अनुभव की बात है। भगवान सर्वज्ञ देव जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि आत्मा में शरीरसंसार या रागादि है ही नहीं - सर्वप्रथम ऐसा निर्णय कर आत्मा का अनुभव कर । जीव - लकड़ी का- पत्थर का-लोहे का- अग्नि का- जल काबिजली के स्वभाव का विश्वास करता है। डाक्टर और दवा की गोली का विश्वास करता है। यद्यपि इससे आत्मा का कोई सम्बंध नहीं है और कर्मोदय जन्य परिणमन में यह कुछ भी वल फेर नहीं कर सकते, फिर भी जीव उनका विश्वास करता है और सच्चे देव, गुरु, शास्त्र उनकी वाणी पर विश्वास नहीं करता । वह कहते हैं कि तू -स्वयं आत्मा एक ज्ञान शक्ति है, अनन्त शक्तियों से व्याप्त भगवान आत्मा अचिन्त्यशक्तिमय सामर्थ्यवान है। तेरे स्वयं के जागने पर संसार और समस्त कर्मों का विलय हो जाता है। इसका भरोसा करें तो भव भ्रमण से छूट जायें, स्वयं भगवान परमात्मा हो जायें। पूजा न केवल द्रव्य चढ़ाना है, पूजा न केवल भक्ति दिखाना है । पूजा का अर्थ पूज्य में तन्मय हो जाना है, पूजा का प्रयोजन पूज्य बन जाना है ॥ [12] [11]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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