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________________ आत्मा स्वयं ही है। वह धर्म वीतराग देव, गुरु,शास्त्र आदि कहीं बाहर से नहीं आता, परन्तु निज शुद्ध ज्ञायक आत्मा के ही आश्रय से प्रगट होता है। आत्मा ज्ञान और आनन्द आदि निर्मल गुणों की शाश्वत खान (भंडार) है। सत् - समागम से श्रवण, मनन के द्वारा उसकी यथार्थ पहिचान करने पर आत्मा में से जो अतीन्द्रिय आनन्द यक्त निर्मल अंश प्रगट होता है वह ही धर्म है। अनादि - अनन्त एक रूप चैतन्य मूर्ति भगवान आत्मा वह अंशी है, धर्मी है, और उसके आश्रय से जो निर्मलता प्रगट होती है वह अंश है, धर्म है। ज्ञानी को अंशी (निज- शुद्धात्मतत्व, अखंड, अभेद, अनन्त गुण निधान सत्स्वरुप) का आश्रय होता है, अंश का नहीं। और वेदन अंश का होता है परन्तु उसका अवलंबन नहीं होता, उसे अपने शुद्ध अखंड परम पारिणामिक भाव स्वरुप निज आत्म द्रव्य का ही निरन्तर अवलम्बन वर्तता है, यही उसका इष्ट-आराध्य है। इसी (शुद्धात्म स्वरुप) के ही आधार से धर्म कहो - या शान्ति कहो- या मुक्ति कहो, सब प्रगट होता है। किसी परपरमात्मा- परावलम्बन से धर्म नहीं होता, पर के आश्रय से पर को इष्ट आराध्य मानने से कभी मुक्ति नहीं होती। यहां कोई प्रश्न करता है कि जब परमात्मा - परावलम्बन से धर्म या मुक्ति नहीं होती, तो यह सिद्ध स्वरुप - सिद्ध परमात्मा अरिहन्त परमात्मा की बात क्यों करते हो? देव, गुरु, शास्त्र को क्यों मानते हो? समाधान -जगत में सर्वश्रेष्ठ, परमहित रूप, परम मंगल स्वरुप तथा परमशरण रूप ऐसा सिद्ध पद सर्वथा अभिनन्दनीय है। सिद्ध पद की प्राप्ति के उपाय बताने वाले सद्गुरु वीतरागी संत होते हैं, जो स्वयं उस मार्ग पर चलते हैं तथा सिद्ध पद प्राप्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रत्नत्रय स्वरुप निज शुद्धात्मा है। जिसको अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है, सद्गुरु पालन करते हैं और बताते हैं, शास्त्र (जिनवाणी) में वह लिखा है इसलिये देव, शास्त्र, गुरु के प्रति बहमान भक्ति भाव आता तो वीतरागी व विज्ञान मय है। इसका ज्ञान ही परमइष्ट है। शक्ति सेतो सभी आत्मायें शुद्ध हैं, परन्तु रागादि विकार अथवा ज्ञान की हीनता की अपेक्षा से जीव संसारी दीन-हीन बना है। अपने ज्ञान में विवेक प्रगट हुआ तो जिसके निमित्त से बात समझ में आई - उन वीतरागी देव, गुरु,शास्त्र का स्मरण कर नमस्कार करते हैं। उनके उपकार नहीं भूले जाते। देव, गुरु, शास्त्र ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से परमात्मा है। अपने स्वरुप का विस्मरण होने से संसारी बना है। देव, शास्त्र, गुरु हमें अपने स्वरुप का स्मरण कराते हैं।न वह पार लगाते ४,न परमात्मा बनाते हैं, न भला बुरा करते हैं। हमें अपनी स्वतंत्र सत्ता का बोध कराते हैं क्योंकि ऐसा ही उन्होंने भी अपने अनुभव में लिया - बोध किया। जिससे वह आत्मा से परमात्मा बन गये । वह कहते हैं कि हमारी पूजा भक्ति से तेरा कल्याण मुक्ति नहीं हो सकती। तुझे तेरी महिमा भाषित हो - कि मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा हूँ. तो हमारी महिमा तो हो ही जाती है। भगवान सर्वज्ञ के मुखार बिन्द से निकली हुई वीतराग वाणी जिनवाणी को जो हृदयंगम करते हैं उनके भव का अन्त आ जाता है,एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता तो नहीं, परन्तु स्पर्श भी नहीं करता । प्रत्येक द्रव्य की पर्याय क्रमबद्ध होती है। आत्मा मात्र ज्ञायक परमानन्द स्वरुप है। यह भगवान सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि का नाव है। अध्यात्म की ऐसी सूक्ष्म वस्तु इस काल में जिसे अन्तर में रुचकर परिणमित हो जाये, उस जीव के दो चार भव ही होंगे, अधिक नहीं, यह शास्त्र कथित है। इस काल में केवल ज्ञानी, अवधिज्ञानीया- मनः पर्यय ज्ञानी नहीं है तथा वीतरागी संत भी विरले कोई हों, एक मात्र जिनवाणी ही हमें वस्तु स्वरुप सच्चे देव, गुरु धर्म का स्वरुप अपने शुद्धात्म तत्व का बोध कराती है। प्रभुत स्वयं परमेश्वर है। पर वस्तु तो दूर है। शरीर,वाणी, मन, स्त्री, पुत्र, पैसा तो सब पर ही हैं। यहां तो देव, गुरु, शास्त्र भी पर है, दूर हैं। प्रभु एक समय की पर्याय भी तेरे त्रिकाली ध्रुव स्वभाव से पर है, उस पर दृष्टि देना भी मिथ्यात्व है। ऐसा सत्य वस्तु स्वरुप बताने वालों के प्रति बहमान आता ही है, इनकी अरिहन्तादि का स्वरूपवीतराग विज्ञानमय होता है, इसी कारण से अरिहन्त सिद्ध आदि स्तुति योग्य महान हुये हैं। पंचपरमेष्ठी का मूलस्वरूप
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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