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(१९) समय-आत्मा को, आगम को, प्रसंगको कहते हैं। समयका विवेक और ध्यान रखने वाला ज्ञानी है। (२०) जो स्व में स्थित है, वह स्वस्थ्य है, वही साधु कहलाता है। (२१) अध्यात्म तत्व का उपदेश सुने बिना, न अपनी आत्मा का बोध होता है, न श्रद्धान होता है, न पाप विषय कषाय से विरक्ति होती है। (२२) जो अवती है, वह वत ग्रहण करके ज्ञानाभ्यास में तत्पर होकर परमात्म बुद्धि से समभाव होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है। (२३) ज्ञेय और ज्ञाता में जैसा सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कहा गया है, जैसा उनका यथार्थ स्वरूप है, तदनुसार प्रतीति होना. सम्यक्दर्शन है और अनुभूतियुत निर्णय होना सम्यक्ज्ञान है। (२४) बाह्य विषयादि का त्याग द्रव्य त्याग है, और अन्तरवर्ती विषयादिसम्बन्धी, विकल्पों का त्याग-भाव त्याग है, दोनों प्रकार से त्याग करने वाले विश्व पूज्य होते हैं। (२५) आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का पर के आकार रूप अवलम्बन से रहित संवेदन को स्व-संवेदन कहते हैं। (२६) अदेव, अगुरु आदि की मान्यता छोड़कर कर्म से और कर्म के कार्य क्रोधादि भावों से भिन्न, चैतन्य स्वरूप आत्मा को नित्य भाना चाहिए, इसी से नित्य आनन्द मय मोक्ष पद की प्राप्ति होती
(२९) मन के एकाग्र होने से स्व संवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है, उसी आत्मानुभूति से जीवन मुक्त दशा और अन्त में परम मुक्ति प्राप्त होती है। (३०) आर्यता, कुलीनता आदि गुणों से युक्त इस उत्तम मनुष्य पर्याय का सार- जिनवाणी की शिक्षा धारण कर, भेदज्ञान तत्वनिर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जानकर, मुनिपद धारण करना ज्ञान सम्पन्न समाधिस्थ होना है। (३१) मोक्ष का कारण तो एक मात्र - परम ज्ञान ही है, जो कर्म के करने में स्वामित्व रूप कर्त्तव्य से रहित है, जितनी क्रिया है, वह कर्म बन्ध का कारण है और एक मात्र शुद्ध चैतन्य प्रकाश मोक्ष का कारण है। (३२) जिनवाणी के स्वाध्याय से चित्त का खेद - सन्ताप- अज्ञान
और व्याकुलता दूर होती है, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की स्थिरता का नाम ही ध्यान है। आत्मध्यान से मुक्ति होती है। यही निश्चय-व्यवहार शाश्वत मार्ग है।
सम्यक्ज्ञान-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न १.- धर्म का प्रारम्भ कैसे होता है? समाधान - धर्म का प्रारम्भ सम्यक्दर्शन से होता है, सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करके निजशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अनुभूति युत श्रद्धान का नाम सम्यक्दर्शन है। प्रश्न २. - आगम में तो धर्म की परिभाषा - शुभाचरण रूप पुण्य से की गई है? समाधान - आगम में अज्ञानी की अपेक्षा पुण्य को धर्म कहा गया है, जिनेन्द्र भगवान की देशना तो - पूजा भक्ति आदि के साथ व्रताचरण करना सब पुण्य है, और पुण्य बंध है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म कहते हैं। जीव की सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप विशुद्धि को धर्म कहते हैं। मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान - मिथ्याचारित्ररूपसंक्लेश परिणामको अधर्म (पुण्य- पाप) कहते हैं।
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(२७) संसार भ्रमण का कारण एक मात्र अपने स्वरूप को न जानना है। (२८) रत्नत्रय की प्राप्ति बड़े ही सौभाग्य से होती है। अतः उसे पाकर सतत् सावधान रहने की जरूरत है. एक क्षण भी प्रमाद हमें उससे दूर कर सकता है और प्रमाद की सम्भावना इसलिये है कि पुराने संस्कारों के भ्रम में पड़ सकते हैं।
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