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सकता है। कोई जीव नग्न दिगम्बर मुनि हो गया हो परन्तु पर के साथ एकत्व बुद्धि पड़ी है, पर वस्तु, बाह्य क्रिया से आत्म कल्याण, मुक्ति होगी ऐसा अभिप्राय बना हुआ है, तो वह मिथ्यादृष्टि है। वह देव पूजा का अधिकारी नहीं, उसे देवत्व पद तीन काल भी मिलने वाला नहीं है।
जो ज्ञानी पंडित है, भले ही वह अवती हो पर वह पूजा का अधिकारी है वह ज्ञान में स्नान कर अन्तर शोधन करके सब मल मिथ्यात्वादि का प्रक्षालन कर शुद्ध साधक बन परमात्मा बनेगा।
तत्व विचार के अभ्याससे जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। जिसेतत्व का विचार नहीं है, वह देव गुरु शास्त्र व धर्म की प्रतीति करता है, अनेक शास्त्रों का अभ्यास करता है, व्रत तप आदि करता है तथापि सम्यक्त्व के संमुख नहीं है, सम्यक्त्व का अधिकारी नहीं है। सम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं, जिसे आत्मा के पूर्ण स्वभाव का अन्तर में विश्वासपूर्वक उसका सच्चा श्रद्धान अनुभव सम्यकदर्शन हुआ हो कि मैं ज्ञान, आनन्दादि अनन्त शक्तियों से परिपूर्ण शुद्धात्मा हूँ।
जिसे ऐसा श्रद्धान होता है। वह पंडित अपने रत्नत्रय मयीशुद्ध स्वभाव के जल में ज्ञान स्नान करता है। शुद्ध चैतन्य स्वरूप के ध्यान में लीन हो ज्ञान स्नान करता है। तीन लोक में जो ज्ञान का सूर्य निजशुद्धात्मा उसकी अनुभूति के जल में स्नान करता है और इससे सम्पूर्ण शंकादि दोष मिथ्यात्वादि मल से छूटकर पवित्र पूर्ण शुद्ध ज्ञानी हो जाता है, फिर अन्तर शोधन कर, तीन मिथ्यात्व, तीन शल्य, तीन कुज्ञान, रागद्वेषादि अशुभ भावनाओं का प्रक्षालन करता है। चार अनन्तानुबंधी कषाय, पुण्य-पाप, अशुभ दुष्ट कर्म और मन की चंचलता का प्रक्षालन कर अर्थात् ज्ञान पूर्वक सबको धोकर साफ कर फिर, दशधर्म तथा रत्नत्रय के वस्त्राभूषण पहन कर जिन मुद्रा धारण करता है। ज्ञान मयी ध्रुव स्वभाव का मुकुट बांधता है और देव दर्शन के लिए अन्तर गृह चैत्यालय में प्रवेश करता है।
यहाँ भी शुद्ध दृष्टि अर्थात दर्शनोपयोग की शुद्धि हुये बगैर देव दर्शन नहीं होते, तो वह अन्तर चक्षु ज्ञान और दर्शन की शुद्धि करता है अर्थात अचेतन, नाशवान, असत क्षणभंगुर पर द्रव्य की तरफ नहीं देखता। पच्चीस दोषों से रहित शुद्ध दृष्टि का धारी ही सच्चे देव के दर्शन करता है, उसेही निज
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शुद्धात्मा प्रत्यक्ष अनुभव गोचर होती है और जहाँ परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ, वहां फिर कहना ही क्या है। उसी अतीन्द्रिय आनन्द में लीन अमृत रस में निमग्न वन्दना स्तुति भक्ति करता है, जय जय कार मचाता है। साधु पद सातवें गुण स्थान से क्षपक श्रेणी मांडकर जहाँ शुक्ल ध्यान में लीन होता है। अड़तालीस मिनिट (एक मुहुर्त)) में देवता जय जय कार मचाते चले आते हैं।
केवलज्ञानी अरिहन्त परमात्मा की जय..... यही सच्ची देवपूजा का सच्चा स्वरूप है। इसी मार्ग से अभी तक जितने सिद्ध परमात्मा हुये हैं, हो रहे हैं और होवेंगे, उनका यही सच्चा विधि विधान है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष-ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेद भाव नहीं है। प्रत्येक जीव आत्मा स्वतंत्र है बस अपने अज्ञान मिथ्यात्व को हटाकर स्वयं परमात्म पद प्रगट कर सकता है। जो केवल ज्ञान परमात्म पद प्राप्त कराये, वही पूजा सच्ची पूजा है और यह स्व के आश्रय निज शुद्धात्म स्वरूप के अवलम्बन, ज्ञान, ध्यान से सहज में उपलब्ध होती है। पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म द्रव्य पर दृष्टि करने से उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है। किसी अदेव, कुदेव, पर परमात्मा के पराश्रय-परावलम्बन से मुक्ति नहीं मिलती।
जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कथित यह मुक्ति का श्रेष्ठ शुखमार्ग व्यवहार निश्चय से शाश्वत अनेकान्तमयी है। जो भव्य जीव इसका आराधन करते हैं। वे अवश्य आत्मा से परमात्मा होते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है।
इसलिये सब छोड़कर एक शुद्धात्म तत्व की अखंड परम पारिणामिक भाव के प्रति दृष्टि करना, इसी का पुरुषार्थ करना, कि उसी की ओर उपयोग लगा रहे । स्वभाव में से विशेष अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट करने के लिए ही साधक सब छोड़ते और मुनिजन जंगल में बसते हैं। तभी उनको निरन्तर परम पारिणामिक भाव, ध्रुवस्वभाव में लीनता वर्तती है। शरीर है किन्तु शरीर की कोई चिन्ता नहीं है। देहातीत जैसी दशा रहती है, उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग की मैत्री पूर्वक रहने वाले हैं। आत्मा का पोषण करके निज स्वभाव भावों को पुष्ट करते हुये विभाव भावों का शोषण करते हैं।
सम्यकदृष्टि श्रावक, साधक को, मुनि को जो शुभ भाव आते हैं। वे
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