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का विचार नहीं आता, जो विषय कषाय का लम्पटी हो, वह तो धर्म पाने योग्य पात्र ही नहीं है। बहुत से जीवों को सरल परिणाम होने पर भी सत् समागम मिलना दुर्लभ है। वीतरागी सर्वज्ञ शासन के तत्व को समझाने वालों का सत्समागम मिलना अति दुर्लभ है। जिसने अपने आत्म स्वरूप को पहचान लिया उसका जीवन सार्थक और सफल है। धर्म का यथार्थ स्वरूप समझाने वाले ज्ञानी सद्गुरूओं का समागम महाभाग्य से मिलता है। ऐसे शुभ योग को पाकर जिसने सत्य वस्तु स्वरूप को नहीं जाना, अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं पहचाना, भेदज्ञान द्वारा स्व पर का यथार्थ निर्णय नहीं किया, तो यह मनुष्य भव लुट जायेगा, क्योंकि संसार में अज्ञानी जनों का समागम कुदेव कुगुरु का संग, पूजा भक्ति द्वारा विपरीत श्रद्धा का पोषणकर मनुष्य यह भव खो देता है।
इस मनुष्य भव और सब शुभ योग को पाकर आत्मा की प्रतीति कर लेना ही योग्य है। अनादि से अज्ञान मिथ्यात्व के वशीभूत अपने को यह शरीर ही मैं हूँ, ऐसा माना है और इस अगृहीत मिथ्यात्व के कारण अनन्त संसार में चार गति, चौरासी लाख योनियों का भव भ्रमण किया है। यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता हूँ। यही बंधन और दुःखः का कारण है, तथा कुज्ञान में फंसकर इतने बंधन बाँध लिये हैं कि उनसे छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है। धर्म कर्म का यथार्थ निर्णय श्रद्धान विश्वास न होने से, पर से मेरा भला बुरा होता है। सुख दुःख मिलता है या मैं किसी का भला बुरा कर सकता हूँ सुख दुःख दे सकता हूँ यह कुज्ञान रूप बंधन बड़ी दुर्दशा दुर्गति करता है। मोह रागद्वेष से बांधता है। वस्तु स्वरूप का विचार करने, कर्म सिद्धान्त को जानने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई किसी का कुछ नहीं करता सबका अपनेअपने कर्म उदयानुसार ही सुख-दुःख भला बुरा होता है।
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता ॥
किसी कुदेवादि देवी-देवताओं की मान्यता- पूजा भक्ति करने से मेरा भला बुरा होगा, यह कुज्ञान रूप मान्यता ही धर्म से विमुख किये संसार में रुला रही है, यह देव मूढ़ता है। यही धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन है। किसी नाम से, किसी रूप की पाषाण आदि धातु की मूर्ति बनाकर उसे भगवान, देवीदेवता मान कर पूजना, उससे संसारी कामना - वासना की पूर्ति चाहना या [87]
अपना भला होना मानना ही कुज्ञान दुरगति का कारण है।
भगवान सर्वज्ञ के मुखारविन्द से निकली हुई, वीतराग वाणी परम्परा से गणधरों व मुनियों द्वारा प्रवाहित होती आई है। जो जिनवाणी शास्त्र रूप में गुथित है। इस वीतराग वाणी में कथित तत्वों का स्वरूप जिनके हृदयंगम हुआ, उन भव्य जीवों के भव का अन्त आ जाता है। भगवान की वाणी स्वयं भगवान बनाने वाली है। इसे जो न माने और कुदेवादि की मान्यता- वंदना - पूजा - भक्ति करे तो कैसे भला होगा १
संसारी व्यवहार दया दानादि से मेरा पर भव सुधर जायेगा, मुक्ति हो जायेगी, यह कुज्ञान रूप मान्यता- रेत को पेलकर तेल निकालने जैसी है। जो क्रिया - भाव-कर्म बंध के कारण हैं, भले ही वह पुण्य रूप हों पर हैं तो बंध ही, उनसे मुक्ति मानना महान अज्ञान है।
आत्म ज्ञान और आत्म ध्यान के अतिरिक्त अन्य सब कुछ घोर संसार मूल है शुभ या अशुभ भाव दया दानादि शुभ क्रिया, राग भाव यह सब बंध के कारण दुःख रूप हैं।
एक ज्ञान स्वरूप शुद्ध चैतन्य निज-शुद्धात्मा को ही ध्येय बनाकर ध्यान करने से मुक्ति होती है, अन्य सब संसार का ही कारण है।
मिथ्यात्व और कुज्ञान के अनन्त प्रकार हैं, इन सबको छोड़कर अपने शुद्धात्मा के शुद्ध भाव में लीन होना ही मुक्ति है। आत्म कल्याण का मार्ग है।
बाह्य क्रिया और राग रूप भावों से मुक्ति मानना पाखंड रूप मिथ्यात्व है। इन सबकी अन्तर मान्यता छोड़कर, आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करना, मैं एक हूँ - शुद्ध हूँ- ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण अरूपी शुद्धात्मा हूँ ऐसा निश्चय करना ही एक मात्र इष्ट और हितकारी है।
ऐसा उत्तम योग फिर कब मिलेगा ? निगोद में से निकल कर त्रस पर्याय पाना चिन्तामणि रत्न प्राप्ति के समान दुर्लभ है। उसमें नर भव पाना, जैन धर्म मिलना तो महा दुर्लभ है। धन और कीर्ति मिलना यह कोई दुर्लभ नहीं है। ऐसा उत्तम योग मिला है। यह अधिक समय तक नहीं रहेगा, अतः मिथ्यात्व और कुज्ञान को छोड़कर, अपने शुद्ध स्वभाव को जानकर, उसका अनुभव करने का प्रबल प्रयत्न कर, यही करने योग्य है। जिसके एक समय
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