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________________ मानता है तथा मात्र कुल परम्परा से अपने को धर्मी मानता है और सत्य का निर्णय नहीं करता वह तो मिथ्या दृष्टि है। इस काल में बुद्धि अल्प, आयु अल्प व सत्समागम दर्लभ है। जग में पाप को पाप तो सभी कहते हैं, पर अनुभवी ज्ञानी जन तो पुण्य को भी पाप कहते हैं। भाई ! पदार्थ की स्वतंत्रता की बात जानने के लिए बहुत हिम्मत और पुरुषार्थ चाहिये। आत्म ज्ञान-आत्म ध्यान के अतिरिक्त अन्य सब कुछ घोर संसार का कारण है। एक ज्ञान स्वरुप-शुद्ध चैतन्य-ध्रुव तत्व भगवान आत्मा को ही ध्येय बनाकर ध्यान करना चाहिए। अरिहन्त सिद्ध परमात्मा में जैसी सर्वज्ञता, जैसी प्रभुता, जैसा अतीन्द्रिय आनन्द और जैसा आत्म वीर्य है, वैसी ही सर्वज्ञता प्रभुता आनन्द और वीर्यशक्ति-निज आत्मा में भरी है। इसका श्रद्धान, ज्ञान, स्वाभिमान, बहुमान जागे यही धर्म का उत्साह है, जो परमात्मा बनाता है। प्रश्न-ऐसे शुद्धात्म स्वरुप को जानने समझने उपलब्ध करने का मूल आधार क्या है? इसके समाधान में सद्गुरू आगेगाथा कहते हैं......... गाथा (३०) सार्धं च सप्त तत्वानं, दर्व काया पदार्थकं । चेतना सुद्ध धुवं निश्चय,उक्तंति केवलं जिनं ॥३०॥ अन्वयार्थ -(सार्धं) श्रद्धान साधना (च) और (सप्त तत्वानं) साततत्वों का (दर्व) छह द्रव्य (काया) पंचास्तिकाय (पदार्थ कं) नौ पदार्थों में (चेतना) जीव आत्मा (सुद्ध) शुद्ध (धुर्व) ध्रुवं अविनाशी, ध्रुव स्वभावी (निश्चय) निश्चय से शाश्वत अटल है (उक्तंति) कहा है, देशना है (केवलं जिनं ) केवल ज्ञानी परमात्मा-जिनेन्द्र भगवाना विशेषार्थ- केवली भगवान, जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि सात तत्व, छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, नौ पदार्थ में, एक शुद्ध चैतन्य धुव स्वभाव निज शुद्धात्मा ही श्रद्धान करने योग्य अनुभूति गम्य है, इसका ही भेदज्ञान पूर्वक सत्श्रद्धान करो कि सात तत्व (जीव,अजीव,आश्रव, बन्ध,संवर,निर्जरा, मोक्ष) में शुद्ध द्रव्य शुद्धात्मा मैं हूं | पंचास्तिकाय (जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश) में शुद्ध जीवास्तिकाय शुद्धात्मा मैं हूँ। नौ पदार्थ (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) में शुद्ध पद, सिद्ध पद वाला, मैं शुद्धात्मा हूँ, शेष तत्व अजीवादि मेरे से सर्वथा भिन्न हैं। मैं शुद्ध चैतन्य ध्रुव स्वभावी शुद्धात्मा हूँ, शुद्ध निश्चय नय से ऐसा श्रद्धान करो, यही तत्व को उपलब्ध, परमात्मा होने की विधि है! यही सम्यकदर्शन है, जो मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है। जीवपुण्य,पाप कर्मों के सहयोग से पदार्थ अवस्था में है, पर शुद्ध सिद्ध पद वाला है, नौ पदार्थों में चैतन्यमयी जीव तत्व, स्वयं को ही जानो, जीवादि छह द्रव्यों में अनन्त गुणों का निधान,जीव द्रव्य मैं स्वयं हैं। ऐसा विशुद्ध शुद्ध द्रव्य दृष्टि से देखो। जीवादिक बहुप्रदेशी, पांच अस्तिकाय में अपनी चेतना समस्त पर पुद्गल आदि से न्यारी है। सात तत्वों में भी सार भूत शुद्ध चैतन्य-मयी ध्रुव स्वभावी मैं हूँ, इस प्रकार सत्ताईस तत्वों में निश्चय से इष्ट और उपादेय निज शुद्धात्म तत्व ही है। इसी शुद्ध सत्स्वरुप की श्रद्धा और साधना करो, श्री जिनेन्द्र परमात्मा की यही देशना है। इसी से परमात्म तत्व की उपलब्धि होती है। तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन।। आत्मा का वेदन कैसे हो? वह कोई निमित्त और राग में प्रेम करने से नहीं होता, जो चेतन की चेतना है, वह ज्ञान, दर्शन, द्वारा ख्याल में आती है। वह पर से तो नहीं बल्कि ज्ञान के सिवाय अन्य गुणों से भी पकड़ में नहीं आती, ऐसे ज्ञान लक्षण व्दारा चेतना जानने से चेतनाव्दारा, चेतन सत्ता का निर्णय होता है। जब ज्ञान में चेतना अनुभव में जानने में आई, तभी ऐसा निर्णय हुआ कि यह चेतन सत्ता है। अपने अनुभव द्वारा देखने जानने वाली वस्तु पकड़ में आई, उसी समय निर्विकल्प आनन्द परम सुख का वेदन हुआ, तभी चेतन सत्ता का निर्णय हुआ इसी का नाम सम्यकदर्शन है। जगत में जिन्हें आत्मा का भान है ऐसे संत जो गुणवन्त सद्गुरु कहलाते हैं। वह एक ही बात कहते हैं कि आत्मानुभवन करो, मैं आत्मा हैं इन शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी, चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं। ऐसा भेदज्ञान पूर्वक सत्श्रद्धान [81] [82]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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