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________________ क्या साध्य है, तथा बाह्य पर का आलम्बन मोक्ष मार्ग नहीं है। मोक्ष तो सम्यग्दर्शन आदिशुद्ध भावों से ही साध्य है। ज्ञान - दर्शन स्वभाव मात्र अभेद निज तत्व की दृष्टि करने पर उसमें नव तत्व रूप परिणमन तो है ही नहीं - चेतना स्वभाव मात्र ज्ञायक वस्तु में गुण भेद भी नहीं है इसलिये गुण भेद, या पर्याय भेद को अभूतार्थ, असत्य कह दिया है। दया दान पर की पूजा भक्ति का भाव तोराग है, वह लक्ष्य करने योग्य नहीं है परन्तु संवर निर्जरा रुपवीतराग निर्मल पर्याय भी लक्ष्य आश्रय करने योग्य नहीं है। आत्मा का निश्चय सोसम्यग्दर्शन, आत्मा का ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान और आत्मा में निश्चल स्थिति सो सम्यग्चारित्र-ऐसे रत्नत्रय वह मोक्ष मार्ग ज्ञानी के ज्ञान मार्ग की साधना, ज्ञान, ध्यान, भक्ति पूजा बड़ी अपूर्व परम तत्व की बात है। इसका साधक स्वयं परमात्मा बनता है। एतत् संमिक्त पूजस्य, पूजा पूज्य समाचरेत् । जो आतम भगवान पूजता. ज्ञानानन्द में रहता है। स्वयं सिद्ध परमातम बनता, यह जिन आगम कहता है। जिनवाणी का सार यही है, बनना खुद भगवान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है। मैं आतम शुद्धातम हूँ, परमातम सिद्ध समान हूँ। ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान महान हूँ॥ ज्ञानी पंडित उसी को कहते, जिसको सम्यक ज्ञान है। पूज्य समान आचरण ही, पूजा का सही विधान है। ज्ञानी साधक समाधि परिणत है । वे ध्रुव तत्व शुद्धात्मा का आलम्बन लेकर, विशेष - विशेष समाधि सुख प्रगट करने को उत्सुक हैं। यही जैनागम में जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा पूजा का विधान बताया है। इससे परम शान्ति का वेदन होता है। कषाय बहत मन्द होती जाती है। एक मात्र भगवान बनने की भावना होती है कि स्वरुप में कब ऐसी स्थिरता होगी जब श्रेणी (समाधि) लगाकर पूर्ण वीतराग दशा प्रगट होगी? कब स्वरुप में उग्र रमणता होगी और आत्मा का परिपूर्ण ज्ञान [63] स्वभाव केवल ज्ञान प्रगट होगा। उसके साधन रुप, ज्ञान, ध्यान भक्ति आराधना (पूजा) में तल्लीन रहते हैं। जिससे परिणाम में स्वयं आत्मा से परमात्मा - पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध होते हैं। यही सच्ची पूजा हैजो आत्मा से परमात्मा बनाती है जिस पूजा से संसार में भटकना पड़े वह परमात्मा की सच्ची पूजा ही नहीं है। ज्ञान, ध्यान, भक्ति, पूजा स्वयं के जीवन को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के साधन हैं। पूजा का अभिप्राय पूज्य सम, स्वयं पूज्य बन जाना है। जो भी अपना इष्ट मानते, उसी इष्ट को पाना है। भक्ति अर्थात् भजना - किसे भजना? अपने स्वरुप को भजना, मेरा स्वरुप निर्मल एवं निर्विकारी - सिद्ध जैसा है। उसकी यथार्थ प्रतीति करके उसे भजना वही निश्चय भक्ति है। और वही परमार्थ स्तुति है। पूजा अर्थात पूजना, किसे पूजना? अपने ध्रुव तत्वशुद्धात्म स्वरुप के आश्रय पर्याय की अशुद्धि को दूर कर परिपूर्ण शुद्ध करना ही सच्ची पूजा है, इसी से देवत्व पद प्रगट होता है। निचली भूमिका में देव, गुरु, शास्त्र की भक्ति का भाव आये, वह व्यवहार है, शुभ राग है, पुण्य बंध का कारण संसार है। कोई कहेगा कि यह बात कठिन लगती है पर भाई स्वयं भगवान महावीर- अनन्त सिद्ध परमात्मा इसी विधि से भेदज्ञान पूर्वक तत्व श्रद्वान निज शुद्धात्मानुभूति करके स्वरूप में स्थिर होकर स्वरुपकी निश्चय भक्ति करके मोक्ष गये हैं। वर्तमान में जा रहे हैं और भविष्य में इसी पूजा भक्ति विधान से मोक्ष जायेंगे, एक होय त्रिकाल मां - परमार्थनो पंथ ॥ प्रश्न - जब जिनेन्द्र परमात्मा ने सच्ची पूजा निज स्वरुप रमणता बताई है और इसी से मुक्ति होती है, फिर व्यवहार में यह जो पूजा आदि का विधान चलता है, यह क्या है ? और इससे क्या होगा? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं.......... गाथा (२४) अदेवं अन्यान मूढं च, अगुरं अपूज पूजतं । मिथ्यातं सकल जानन्ते, पूजा संसार भाजन ॥२४॥ [64]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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