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श्री पंडित पूजा भूमिका
भारतीय संस्कृति में पूजा का विशेष महत्व है। पूजा के विधिविधान, नाम, प्रकार अपनी सामाजिक मान्यता और परम्परा के अनुसार हैं। सामाजिक संगठन व्यवस्था के लिये कुछ रीति-नीति विधि विधान अनुशासन आवश्यक है। इसी के अन्तर्गत धार्मिक अनुष्ठान, उपासना पद्धति, पूजा पाठ एक विशेष महत्वपूर्ण कड़ी है। जिसके माध्यम से मनुष्य की भावनाओं को मोड़ा जाता है। दुष्कर्मों से हटाकर सत्कर्मों की ओर लगाया जाता है।
लेकिन जब यह रूढ़िवाद, कट्टरता और मूढ़ता सहित धर्म का जामा पहिन लेता है, तब समाज और देश के लिए घातक बन जाता है, और यही सम्प्रदायवाद कहलाता है। जिससे मनुष्य एक संकीर्ण दायरे में बंध जाता है। उसका बौद्धिक विकास रुक जाता है। यह व्यवहारिक उपासना पूजा पद्धति धर्म के नाम पर बैर विरोध वैमनस्यता हिंसा को जन्म देती है जिससे उत्थान के बजाय पतन होता है।
ईसाई धर्म में गिरजाघर में जाकर प्रार्थना की जाती है। इस्लाम धर्म में मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ी जाती है, इबादत की जाती है। आर्य संस्कृति हिन्दू धर्म में मन्दिर में जाकर पूजा और पाठ किया जाता है। यहां दो मार्ग हैं (१) भक्ति मार्ग (२) ज्ञान मार्ग ।
(१) भक्ति मार्ग - एक परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करता है। जिसके द्वारा पूरे विश्व का संचालन होता है। जिसके अंश रूप में समस्त जीव हैं। जो उसकी इच्छानुसार संसार में परिभ्रमण करते हैं और अन्त में उसी में लय हो जाते हैं । यह परमात्मा का साकार स्वरुप किसी नाम रूप भेष आदि में भक्ति करते हैं।
(२) ज्ञान मार्ग - अपने आत्म स्वरूप की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है, जगत अनादि निधन अपनी स्वतंत्रता से परिणमित हो रहा है। इसमें अनन्त जीवात्मा हैं, जो स्वयं में परमात्म स्वरुप हैं। अपने स्वरूप का विस्मरण होने से अनादि - अज्ञान जनित कर्मों का सुख दुःख भोगते संसार में परिभ्रमण करते हैं। अपने स्वरूप का बोध, ज्ञान के जागरण होने पर अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन जाते हैं, जो अपने में परिपूर्ण स्वतंत्र शुद्ध [1]
सिद्ध सादि अनन्त काल तक रहते हैं।
पूजा का शाब्दिक अर्थ - पुजाना पूरा करना है। जो अपने में कमी है, कोई कामना, चाहना है उसे किसी के माध्यम से पूरा करना है। परमात्मा अपने में पूर्ण आप्त काम है। अपने में कमी है, उसे पूरा करने के लिये भगवान की पूजा स्तुति करते हैं। इसमें जो साकार स्वरुप किसी नाम रूप भेष में परमात्मा को मानते हैं वह उसकी मूर्ति बनाकर पूजा करते हैं। जो निराकार स्वरुप मानते हैं वह गुणगान प्रार्थना स्तुति करते हैं। सद्ग्रन्थ शास्त्रों के माध्यम से अपने दोषों को दूर कर सद्गुण प्रगट करते हैं।
सोलहवीं शताब्दी अध्यात्मवादी संतों का युग कहलाता है। जिसमें सभी सम्प्रदायों में क्रान्तिकारी संत हुए हैं, जिन्होंने धर्म के नाम पर जो मिथ्या आडम्बर फैल रहा था, उसे दूर किया, समाज को सही मार्ग दर्शन देकर संगठित किया।
इसी क्रम में जैन दर्शन में क्रान्तिकारी वीतरागी संत सद्गुरु श्री जिन तारण तरण मंडलाचार्य हुये, जिन्होंने भगवान महावीर की दिव्य देशना - शुद्ध अध्यात्मवाद का शंखनाद किया। उनकी वीतरागता की साधना और सत्य धर्म, वस्तु स्वरूप को सुनकर जैन अजैन सभी उनके अनुयायी बन गये।
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जब उनके अनुयायी साथियों ने पूछा कि इस ज्ञान मार्ग शुद्ध अध्यात्मवाद में पूजा का विधि विधान क्या है ? इसके लिये सद्गुरु तारण स्वामी ने यह पंडित पूजा का निरूपण किया, जो तारण पंथ का मूल आधार
है।
ज्ञान मार्ग अध्यात्मवाद की साधना पद्धति मात्र ज्ञान ध्यान करना है। इसमें ज्ञानी सद्गुरु और परमात्मा की वाणी जो ग्रंथ शास्त्र जिनवाणी के रूप में विद्यमान है। उसका स्वाध्याय-चिन्तवन-मनन द्वारा अपने सत्स्वरुप शुद्धात्म तत्व की साधना करना, जिनवाणी की विनय भक्ति करना ही पूजा है।
ज्ञान मार्ग के साधक अध्यात्मवादी का लक्ष्य बिन्दु इष्ट कौन होता है, कैसा होता है? किसके आश्रय से वह अपने इष्ट की साधना करता हुआ
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