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ज्ञानी को तो पर्याय का विवेकभी वर्तता है। ज्ञानी उसे कहते हैं जो त्रिकाली ध्रुवस्वभावको पकड़े है। उसकी पर्याय में वीतरागता होने पर पर्याय में रुकता नहीं है। उसकी दृष्टि तो धुव तत्व शुद्धात्मा पर ही टिकी है। पात्रतानुसार पर्याय का परिणमन चल रहा है। पर अब पर्याय का लक्ष्य नहीं है। अपने ज्ञान स्वभाव में ही बार - बार डुबकी लगाता है। स्नान करता है और जो शुभाशुभ पर्यायें आती हैं, उनका प्रक्षालन करता जाता है। उसे तो अपने पूर्ण शुद्ध सिद्ध पद का ही लक्ष्य है। प्रश्न - यह ज्ञानी किन पर्यायों का कैसा प्रक्षालन करता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं.
गाथा (१३)-(१४) प्रषालितं त्रिति मिथ्यात, सल्यं त्रियं निकन्दन । कुन्यानं राग दोषं च, प्रषालितं असुह भावना।।।१३|| कषाय चत्रु अनंतानं, पुण्य पाप प्रषालितं । प्रषालितं कर्म दुस्टंच, न्यानं अस्नान पंडिता।।१४।।
अन्वयार्थ-(प्रषालितं) प्रक्षालन करना अर्थात कपड़े से पोंछ कर साफ करना (स्नान करने के बाद तौलिया आदि से रगड़ कर शरीर को पोंछते हैं, उसी को प्रक्षालन कहते हैं।) (त्रिति मिथ्यातं) तीन मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व) (सल्यंत्रियं) तीन शल्य (माया, मिथ्या, निदान) (निकन्दन) निकालना दूर करना (कुन्यानं) कुज्ञानों, यह भी तीन होते हैं, कुमति, कुश्रुति, कुअवधि (राग दोषंच) और राग द्वेष को (प्रषालितं) प्रक्षालित करते हैं (असहभावना) अशुभ भावना।।
(कषायं) कषायें (अन्तर भावना) (चत्रु अनंतानं) अनन्तानुबंधी चार क्रोध, मान, माया, लोभ (पुण्य - पाप) पुण्य पाप- शुभाशुभ भाव तथा क्रिया (प्रषालितं) प्रक्षालित करते हैं (कर्म दुष्टं च) और दुष्ट कर्मों को पापादि रूप अशुभ कर्म (न्यानं) ज्ञान में (अस्नान) स्नान करते (पंडिता) पंडितजन, ज्ञानी।
विशेषार्थ - शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करके ज्ञानीजन तीन मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व) का प्रक्षालन करते अर्थात् धोकर साफ कर देते हैं। दुःख की कारण - मिथ्या,
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माया, निदान तीन शल्यों को दूर कर देते हैं। संसार में परिभ्रमण का कारण कुज्ञान और राग द्वेषादि द्वोषों को तथा पाप बंध कराने वाली अशुभ भावना का भी प्रक्षालन कर ज्ञानी पवित्रता को ग्रहण करते हैं।
शुद्ध ज्ञान के जल से ज्ञानी अनन्तानुबंधी चार कषायें (क्रोध - मानमाया - लोभ) को धोकर साफ कर देते हैं। शुभ रूप परिणमन पुण्य और अशुभ रूप पाप कहलाता है। ज्ञानी को इन दोनों से प्रीति नहीं होती. अतः पुण्य पाप का भी प्रक्षालन कर देते हैं। चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कराने में निमित्त भूत सभी दुष्ट कर्मों (पापादि रूप अशुभ कर्म) का ज्ञानी प्रक्षालन कर देते हैं।
प्रक्षालन शब्द अन्तर शोधन में बड़ा व्यापक अर्थ रखता है। जैसे बाह्य में स्नान करने के बाद तौलिया, कपड़ा वगैरह से शरीर को रगड़रगड़ कर चारों तरफ से साफ करते हैं, सारी गन्दगी मैल आदि साफ करने के बाद पानी को सुखा देते हैं, इसी प्रकार अन्तर शोधन में ज्ञानी अपने अन्तरंग, बहिरंग सभी प्रकार के दोषों को पोंछकर साफ करता है।
जैसा कि बारह भावना में कहा है. ज्ञानदीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर। या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर॥
अनादि अज्ञान - मिथ्यात्व - शरीरादि कर्मों का संयोग होने से संस्कार वश जीव के साथ क्या - क्या और किन-किन बातों का संबंध जुड़ जाता है, यह बड़ी विडम्बना बहुत सूक्ष्म संधियां हैं। किस जीव के साथ क्या लगा है यह वह स्वयं ही जान सकता है। अन्य कोई न जान सकता न उन्हें निकाल सकता । सर्वज्ञ परमात्मा जानते हैं सद्गुरु बताते हैं पर उन्हें निकालने में कोई दूसरा समर्थ नहीं है, यह तो स्वयं को ही स्वयं का शोधन करना पड़ता है। और इसमें एक मात्र ज्ञान ही सहकारी है। जितना अपना सूक्ष्म ज्ञान होता जायेगा, जितना ज्ञानोपयोग होगा, ज्ञान में अवगाहन करेंगे चिन्तन - मनन चलेगा उतना ही अन्तर शोधन होता है। यह तोबेरी के कांटे हैं, जो एक-एक कर बीन-बीन कर निकालना पड़ते हैं। ज्ञानी पंडितजन शुद्ध ज्ञान जल में स्नान कर इनका प्रक्षालन करते हैं।
वीतराग कथित जिनवाणी, व्यवहार - अशुभ से बचाकर जीव को
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