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________________ बिना जो कोई और उठा पटक करे, उसमें मोक्ष साधन नहीं होता। प्रथम तो सत्य समझने की जिज्ञासा होनी चाहिए, अनादि से भूल होती आ रही है परन्तु सच्ची बात समझने का प्रसंग मिले तो वह भूल मिटे, जो भूल को भूल ही न माने, तो वह भूल कभी नहीं मिटती। मूल बात तो आत्मा की दृष्टि है। द्रव्यानुयोग - शुद्ध निश्चय नय के समझे बिना भव का अभाव नहीं होता। सत् समागम द्वारा वस्तु स्वरुप समझकर आत्मा चिदानन्द स्वरुप है इसकी प्रतीति कर राग रहित होओ, अभेद स्वभाव का लक्ष्य करो, तभी धर्म और मुक्ति होगी। अज्ञानी बाह्य क्रिया में धर्म मानता है। पर के आलम्बन से अपना भला होना मानता है यही संसार का कारण है। जो व्यवहार में ही संलग्न है, जिनका अभी गृहीत मिथ्यात्व ही नहीं छूटा, उनको आत्म स्वरुप की प्रतीति होना ही दुर्लभ है। आत्मा के अनुभव बिना संसार का नाश नहीं होता। जिसे व्यवहार में पूजा, पाठ, दया, दान, व्रत, संयम करने के राग का रस है, इनसे धर्म या मुक्ति होना मानता है। वह मिथ्यादृष्टि है। आत्मा का हित तो मोक्ष ही है। संसार अवस्था में दुःख है, यहां दुःख चाहे अल्प हो - या अधिक किन्तु सुख बिल्कुल भी नहीं है चारों गतियों में दुःख है। आकुलता ही दुःख है। स्वर्ग की इच्छा वश पुन्य करे अथवा नरक तिर्यंच के दुःखों के भय से पाप न करे, तो उससे कल्याण नहीं है। उसमें तो आकुलता है शान्ति नहीं है। आकुलता सो दुःख है व निराकुलता सो सुख हैऐसा निर्णय किये बिना मोक्ष मार्ग में प्रवेश नहीं हो सकता है। भगवान का भजन करो, पूजा-पाठ करो, कंचन-कामिनी और कुटुम्ब का त्याग करोतो धर्म होगा, अज्ञानी ऐसा कहते हैं और ऐसा ही मानते हैं यही मिथ्यात्व है। आत्मा तो सबसे पृथक राग रहित है। ऐसे आत्मा के भानपूर्वक राग छूटे तोही कंचन-कामिनी व कुटुम्ब रूपी निमित्त छूटे हुये कहलाते हैं। स्वरुप में लीन होना सो चारित्र है। बाह्य त्याग चारित्र नहीं है। मैं ज्ञायक हूँ ऐसे स्वभाव की श्रद्धा ज्ञान पूर्वक का जितना वीतराग भाव हुआ उतना संवर धर्म जिस धर्मात्मा ने निज शुद्धात्म द्रव्य को स्वीकार करके परिणति को स्व अभिमुख किया, वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील है वह मोक्षपुरी का प्रवासी होगा। प्रश्न - यह बात समझ में नहीं आती कि एक ओर तो यह कहते हैंमैं शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, टंकोत्कीर्ण अप्पा ममल स्वभावी हूँ और दूसरी और यह कहते हैं पर्याय में अशुद्धि है - गुण प्रगट करना है, शरीरादि कर्मबन्ध है, इसका प्रयोजन क्या है? समाधान - वीतरागी - ज्ञानी - सद्गुरुओं तथा जैन दर्शन की यही विशेषता है कि वह वस्तुस्वरुपको अनेकान्त से प्रतिपादित करते हैं क्योंकि एकान्त पक्ष मिथ्यात्व है। वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। इन दोनों में से यदि एक को भी न माना जाये तो वस्तु नहीं हो सकती। सत् का लक्षण अर्थ क्रिया है। “उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्"। पर्याय निरपेक्ष अकेला द्रव्य अर्थ क्रिया नहीं कर सकता, और न द्रव्य निरपेक्ष पर्याय ही कर सकती, किन्तु एक वस्तु होने पर भी उनमें परस्पर में स्वभाव - नाम - संख्या आदि की अपेक्षा भेद भी है। जैसे स्वभाव - द्रव्य अनादि अनन्त है। एक स्वभाव परिणाम वाला है। पर्याय सादि शान्त अनेक स्वभाव परिणाम वाली है। नाम - द्रव्य की संज्ञा द्रव्य है। पर्याय की संज्ञा पर्याय है। संख्या- द्रव्य की संख्या एक है। पर्याय की संख्या अनेक है। कार्य - द्रव्य का कार्य एकत्व का बोध कराना है। पर्याय का कार्य अनेकत्व का बोध कराना है। काल- द्रव्य त्रिकाली ध्रुव होता है। पर्याय वर्तमान काल वाली एक समय की होती है। लक्षण - द्रव्य का लक्षण सत अविनाशी है। पर्याय क्षणवर्ती - नाशवान है। इस तरह स्वभाव -संख्या - नाम - कार्य - लक्षण आदि से भेद होने से द्रव्य और पर्याय भिन्न है किन्तु वस्तु रूप से एक ही है यह अनेकांत है। द्रव्य स्वभाव का आश्रय करने से पर्याय में शुद्धि आती है, कर्म क्षय होते हैं, पर का पर्याय का आश्रय करने से कर्म बंध और पर्याय में अशुद्धि होती है। [15] [16]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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