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श्री उपदेश शुद्ध सार जी-विषयानुक्रम दोष, मनरंजन गारव आते हैं तथा दर्शन मोहंध, अज्ञान, पाप, कषाय, प्रमाद आदि पाँचों इंन्द्रियों के विषय भ्रमित करते हैं। साधक अपने श्रद्धान और ज्ञान के बल से भेद विज्ञान, तत्त्व निर्णय का निरन्तर अभ्यास करता है और अपने निज सत्ता स्वरूप की नि:शंकितादि गुणों सहित साधना करता है जिससे यह सब मोह राग आदि दोष छूट जाते हैं और साधक अपने निज शुद्धात्म स्वरूप की साधना के बल से अरिहन्त और सिद्ध पद प्रगट करता है, स्वयं सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
प्रथम खण्ड उपदेश का शुसार, निज शुखात्मा की महिमा और उसका सत्स्व रूप। गाथा १
मंगलाचरण, आत्मा ही शुद्धात्मा निर्मल परमात्मा है, ऐसे सिद्ध स्वरूपी, देवों के देव निज
शुद्धात्म स्वरूप को नमस्कार है। * गाथा २ से ३ तक- जिनेन्द्र परमात्मा का उपदेश- (यह आत्म तत्त्व
अनादि से शुद्ध है, अपने अज्ञान के कारण संसार में परिभ्रमण कर रहा है, निज स्वभाव की श्रद्धा करे और अपने शुद्ध स्वभाव की साधना में रत रहे तो सब कर्मों को क्षय कर संसार से मुक्त हो सकता
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी
आश्रय सेजीव मुक्त हो सकता है। * गाथा २८ से ३१ तक- अक्षर, स्वर, व्यंजन के माध्यम से पंच
ज्ञान की उत्पत्ति का कथन । * गाथा ३२ से ३३ तक - पंडित या ज्ञानी का लक्षण। * गाथा ३४ से ४० तक- जिनेन्द्र परमात्मा के उपदेश का सार
भेदज्ञान पूर्वक नि:शंक रहो, निज शुद्धात्मानुभूति करो तो सब कर्मों को क्षय
कर संसार से मुक्त हो जाओगे। * गाथा ४१ से ७३ तक - पंच ज्ञान मई शुद्ध स्वरूपी निज शुद्धात्मा
की महिमा तथा निज शुद्धात्मा की साधना से क्रमश: मति श्रुत अवधि मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रकट होते
हैं और सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त होती है। * गाथा ७४ से ७९ तक- जिन स्वरूप निज अंतरात्मा ही परम देव,
गुरू, धर्म है - ऐसी श्रद्धा से सम्यग्दर्शन
की प्राप्ति तथा उसकी महिमा। * गाथा ८० से ८९ तक- मिथ्यादृष्टि का लक्षण, पर्याय दृष्टि संसार
का कारण, ज्ञान स्वभाव की दृष्टि एवं
आत्म साधना मुक्ति का कारण । द्वितीय खण्ड
रागादि की उत्पत्तिका कारण । * गाथा ९० से १२२ तक- पर्याय दृष्टि से रागादि की उत्पत्ति-जनरंजन
राग के ९भेदों का विशेष कथन । * गाथा १२३ से १५६ तक - कलरंजन दोष का स्वरूप तथा दोष
निवारण करने का उपाय। * गाथा १५७ से १७० तक - मनरंजन गारव कथन ।
है।)
ॐ गाथा ४ से ९ तक
ऐसे साधक विरले ही होते हैं क्योंकि मनुष्य भव मिलने के बाद मन की चंचलता से भटक जाते
* गाथा १० से २७ तक - सच्चे देव, सच्चे गुरू, सच्चे धर्म का सत्संग मिल
जाये तो मन परमात्मा में लग सकता है; और
आनंद सहजानंद मय होता हुआ धर्म के
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