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श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी
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तृतीय खण्ड प्रतिमा धारी व्रती श्रावक का स्वरूपगाथा ३०१ से ३३७ तक - श्रावक धर्म, ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप। गाथा ३३८ से ३६६ तक - पाँच अणुव्रतों के स्वरूप सहित साधना तथा
व्रतों की शुद्धि का उपाय।
श्री ज्यान समुच्चय सार जी-विषयानुक्रम
इनका उन्मूलन कर निज आत्मस्वरूप की प्रतीति कर अव्रत सम्यक्दृष्टि होना, यही सम्यक् पुरुषार्थ है।
द्वितीय खण्ड अव्रत सम्यक्दृष्टि का स्वरूप - * गाथा १५२ से १६८ तक - अव्रत सम्यक्दृष्टि हेय-ज्ञेय का ज्ञाता और
उपादेय गुणों से संयुक्त। * गाथा १६९ से १७४ तक - जिनोपदेश में अव्रत सम्यक्दृष्टि की महिमा
तथा त्रिविधि आत्मा-परमात्मा, अंतरात्मा,
बहिरात्मा का कथन। गाथा १७५ से १७६ तक - प्रथम उपदेश-सम्यक्त्व की प्राप्ति करना है। | गाथा १७७ से २१६ तक - २५ दोषों का स्वरूप तथा पच्चीस मल दोष
रहित शुद्ध सम्यक्दृष्टि की महिमा।। * गाथा २१७ से २४० तक - अष्ट मूलगुण - संवेग, निर्वेद, निंदा, गर्दा,
उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा आदि
का पालन करना। गाथा २४१ से २४७ तक - आठ मूल अवगुण (दोष) पांच उदम्बर, तीन
मकार के त्याग की प्रेरणा। * गाथा २४८ से २६४ तक - रत्नत्रय की आराधना। * गाथा २६५ से २८९ तक - त्रिविध पात्र को चार दान देना। * गाथा २९० से ३०० तक - जल गालन,रात्रि भोजन के त्याग सहित
अठारह क्रियाओं का पालनकर्ता अव्रत सम्यक्दृष्टि ।
चतुर्थखण्ड वीतरागी महाव्रती साधु का स्वरूप - * गाथा ३६७ से ३७३ तक- दश धर्मों का स्वरूप तथा व्रत तप और
भावनाओं का महत्व। * गाथा ३७४ से ३८५ तक - महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुणों सहित
साधु पद की तैयारी। * गाथा ३८६ से ४०१ तक - पंच चेल का निश्चय व्यवहार पूर्वक अपूर्व
कथन। गाथा ४०२ से ४२९ तक - दिगम्बरत्व का स्वरूप वर्णन । गाथा ४३० से ४६९ तक - चौबीस परिग्रह का स्वरूप तथा इनसे रहित
वीतरागी साधु। * गाथा ४७० से ५०० तक - वीतरागी साधु की साधना, पंच महाव्रत और
वैराग्य भावना की साधना। * गाथा ५०१ से ५४८ तक - बारह तप का सम्यक् स्वरूप वर्णन ।
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