________________
૨૪
वक्रोक्तिजीवितम्
( यहाँ यद्यपि दोनों कवियों ने कटाक्षों से भयभीत हुए-से चन्द्रमा का वर्णन प्रस्तुत किया है लेकिन पहले पद्य में मान करनेवाली मानिनियों के मानभङ्ग से उत्पत्र क्रोध से युक्त कटाक्षों का वर्णन अपूर्व ही चमत्कारकारी है। जब कि दूसरे में कुटिम्बिनी के प्रियविरहजन्य क्रोध से युक्त कटाक्षों के वर्णन में उतना चमत्कार नहीं है। इस प्रकार ) इन दोनों (पद्यों) का अन्तर सहृदयहृदयसंवेद्य होने के कारण उन्हीं ( सहृदयों) द्वारा ही विचार करने योग्य है। ( हमें कुछ नहीं कहना है । ) इस प्रकोर यह निश्चित हआ कि न तो रमणीयता विशिष्ट केवल शब्द का ही काव्यत्व होता और न केवल अर्थ का ही ( अपितु शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य होते हैं)। इसीलिए ( आचार्य भामाह ने अपने ग्रन्थ काव्यालङ्कार में काव्य के अलङ्कारों का विवेचन करते हुए ( १, १३-१५) में) यह कहा है
रूपकादिरलंकारस्तथान्यैर्बहुधोदितः ।
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम् ॥ १५ ॥ - अन्य अनेक ( भामह के पूर्ववर्ती भालङ्कारिकों ) ने ( काव्य के ) रूपक .. आदि अलङ्कार ( अर्थालङ्कार ) बताए हैं (क्योंकि बिना अलङ्कारों के काव्य उसी प्रकार अशोभन होता है जैसे) रमणीय होते हुए भी रमणी का मुख बिना अलङ्कारों के शोभित नहीं होता है ।। १५ ।।
रूपकादिमलंकारं पाहमाचक्षते परे। सुपां विमं च व्युत्पत्ति वाचां वाच्छन्त्यलंकृतिम् ॥ १६ ॥
( इसके विपरीत दूसरे (आलङ्कारिक ) रूपकादि ( अर्थालंकारों) को बाह्य अलङ्कार बताते हैं और वाणी का अलङ्कार सुबन्त (सना पदों) तथा तिङन्त ( क्रियापदों ) की व्युत्पत्ति को स्वीकार करते हैं ॥ १६ ॥
तदेतदाहु सौशन्यं नार्थव्युत्पत्तिरीहशी ।
शब्दामिषेयालंकारभेदादिष्टं द्वयं तु नः॥ १७ ॥ तो इस प्रकार उन्होंने सौशन्ध को वताया । अर्थ की व्युत्पत्ति इस प्रकार की नही होती । शब्द और अर्थ के अलङ्कारभेद से हमें तो दोनों इष्ट हैं ॥१७॥
तेन शब्दार्थों द्वौ संमिलितौ काव्यमिति स्थितम् एवमवस्थापिते इयोः काव्यत्वे काचिदेकस्य मनाममात्रन्यूनतायं सत्यां काव्यव्यवहारः प्रत्याह-सहिताविति । सहितो सहितमावेन साहित्येनापस्थिती।