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वक्रोक्तिजीवितम्
इस प्रकार महाकवियों के अन्य प्रबन्धों में भी प्रकरणवक्रता की विचित्रता ही समझना चाहिए ।
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इसके बाद कुन्तक ने प्रकरण वक्रता के इस भेद के उदाहरण रूप में वेणीसंहार के द्वितीय अङ्क को उद्धृत किया है
( यथा वेणीसंहारे प्रतिमुख सन्ध्यङ्गभागिनि द्वितीयेऽङ्के )
तथा कुछ उद्धरण शिशुपालवध से प्रस्तुत किए हैं। इनके विवेचन का सारा का सारा विषय 'अन्तरश्लोकों' से भरा पड़ा है, जो कि पाण्डुलिपि में अत्यन्त भ्रष्ट तथा अपूर्ण है । अतः डा० हे उन्हें नहीं प्रस्तुत कर सके ।
इस प्रकार कुन्तकप्रकरणवक्रता के विवेचन को समाप्त कर प्रबन्धवक्रता का विवेचन प्रस्तुत करते हैं जो कि स्पष्ट रूप से विवेचन का अन्तिम विषय है । प्रबन्धवत्रता का लक्षण प्रस्तुत करने वाली कारिका इस प्रकार प्रारम्भ होती हैइतिवृत्तान्यथावृत्त - रससम्पदुपेक्षया
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रसान्तरेण रम्येण यत्र निर्वहणं भवेत् ॥ १६ ॥ तस्या एव कथामूर्तेरामूलोन्मीलितश्रियः । विनेयानन्दनिष्पत्त्यै सा प्रबन्धस्य वक्रता ॥ १७ ॥
( राजपुत्रादि ) विनेयों के लिये आनन्द की सृष्टिहेतु जहाँ इतिहास में अन्य प्रकार से किए गये निर्वाह वाली रस सम्पत्ति का तिरस्कार कर, प्रारम्भ से ही उन्मीलित किए गये सौन्दर्य वाले काव्य शरीर का दूसरे मनोहर रस के द्वारा निर्वाह किया गया हो वह प्रबन्ध की वक्रता होती है ) ।। १६-१७ ।।
सा प्रबन्धस्य नाटकसर्गबन्धादेः वक्रता वक्रभावो भवतीति सम्बन्धः । यत्र निर्वहणं भवेत्, यस्यामुपसंहरणं स्यात्, रसान्तरेण इतरेण रम्येण रसेन रमणीयकविधिना । कया- इतिवृत्तान्यथावृत्तरससम्पदुपेक्षया । इतिवृत्तमितिहासोऽन्यथापरेण प्रकारेण वृत्ता निर्व्यूढा या रससम्पत् शृङ्गारादिभङ्गी तदुपेक्षया तदनादरेण तां परित्यज्येति यावत् । कस्याः - तस्या एव कथामूर्तेः, तस्यैव काव्यशरीरस्य । किम्भूतायाः - आमूलोन्मीलितश्रियः । आमूलं प्रारम्भादुन्मीलिता श्रीर्वाच्यवाचकरचनासम्पद् यस्यास्तथोक्ता तस्याः । किमर्थम् - विनेयानन्दनिष्पत्त्यै, प्रतिपाद्य पार्थिवादिप्रमोद सम्पादनाय ।
वह प्रबन्ध अर्थात् नाटक तथा काव्य आदि की वक्रता या बांकपन होता है। जहां निर्वाह हो । अर्थात् जिसमें उपसंहार हो । रसान्तर के द्वारा, दूसरे रस के द्वारा रम्य अर्थात् रमणीयता के विधान द्वारा किस प्रकार से इतिवृत्त
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