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वक्रोक्तिजीवितम् षष्ठेऽङ्के राजा हा देवि !
छठव अङ्क में राजा-हा देवि ! त्वत्सम्प्राप्तिविलोभनेन सचिवैः प्राणा मया धारिता.
स्तन्मत्वा त्यजतः शरीरकमिदं नैवास्ति निःस्नेहता। आसन्नोऽवसरस्तथानुगमने जाता धृतिः किन्त्वयं
खेदो यच्छतधा गतं न हृदयं तद्वत् क्षणे दारुणे ॥ २२ ॥ तुम्हारे सम्मिलन की लालच द्वारा अमात्यों ने मुझसे प्राण धारण करवाया (अन्यथा मैं मर गया होता) (किन्तु तुम्हारे न मिलने से केवल प्रलोभन ही) उसको जानकर इस शरीर का परित्याग करते हुए भी तुमसे स्नेह नहीं है ऐसी बात नहीं। समय आ गया है तथा तुम्हारा अनुगमन करने के लिए धैर्य भी उत्पन्न हो गया है लेकिन कष्ट तो इसी बात का है कि जो यह मेरा हृदय उस प्रकार के दारुण समय में सो टुकड़े नहीं हो गया ॥ २२ ॥ ___इस प्रकार प्रकरणवक्रता के इस भेद के उदाहरण रूप में तापसवत्सराज से उद्धरणों को प्रस्तुत कर कुन्तक रघुवंश के नवम सर्ग में वर्णित राजा दशरथ के. मृगयाप्रकरण का निर्देश करते हुए विवेचन करते हैं कि
प्रमाद्यता दशरथेन राज्ञा स्थविरान्धतपस्विबालवधो व्यधीयतेति एकवाक्यशक्यप्रतिपादनः पुनरप्ययमर्थः परमार्थसरससरस्वतीसर्वस्वा. यमानप्रतिभाविधानकलेशेन तादृश्या विच्छित्या विस्फुरितश्चेतनचमत्कारकरणतामधितिष्ठति ।
'प्रमादयुक्त राजा दशरथ ने वृद्ध अन्धे तपस्वी के बालक का वध किया' यह (अर्थ) एक वाक्य के द्वारा भी प्रतिपादित किया जा सकता था फिर भी यह अर्थ वस्तुतः सरस वाणी के सर्वस्वभूत ( महाकवि कालिदास ) की शक्ति के निर्माण के लेशमात्र से उस प्रकार के (लोकोत्तर) सौन्दर्य से प्रकाशित होकर सहृदयों के लिए चमत्कारजनक हो गया है। .. इसके बाद कुन्तक इस मृगया प्रसङ्ग के कवि द्वारा किये गये निरूपण का विस्तारपूर्वक विवेचन प्रस्तुत करते हैं
व्याघ्रानभीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यः
फुल्लासनाप्रविटपानिव वायुरुग्णान् | शिक्षाविशेषलघुहस्ततया निमेषा
तूणीचकार शरपूरितवक्त्ररन्ध्रान् ।। २३ ॥