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वोतिषीवितम् राजा ( सास्रम् )
सर्वत्र ज्वलितेषु वेश्मसु भयादालीजने विद्रते
त्रासोत्कम्पविहस्तया प्रांतपदं देव्या पतन्त्या तदा । हा नाथेति मुहुः प्रलापपरया दग्धं वराक्या तथा
शान्तेनापि वयं तु तेन दहनेनाद्यापि दह्यामहे ।। १८ ।। राजा (रोते हुये)-सब ओर घरों में आग लग जाने पर, डर कर सहेलियो के भाग जाने पर उस समय भय के आवेग से बेसहारा पग पग पर गिरती हुई एवं बार-बार हा स्वामिन् ! हा स्वामिन् ! ऐसा चिल्लाती हुई, वह बेचारी देवी उसी प्रकार जलों कि शान्त हो गई भी उस आग से हम आज भी जले जा रहे हैं॥ १८॥
उक्त उद्धरण की अन्तिम पंक्ति 'शान्तेनापि वयं तु तेन दहनेनाद्यापि दह्यामहे' में प्रयुक्त विरोधालङ्कार' को कुन्तक करुण रस का सहायक प्रतिपादित करते हैं।
इसके बाद चतुर्थ अङ्क का यह श्लोक उद्धृत करते हैंचतुर्थेऽङ्के राजा (सकरुणमात्मगतम् )चतुर्थ अङ्क में राजा ( करुणापूर्वक अपने मन में )चक्षुर्यस्य तवाननादपगतं नाभूत् क्वचिनिवृतं
येनैषा सततं त्वदेकशयनं वक्षःस्थली कल्पिता। येनोक्तासि त्वया विना वत जगच्छून्यं क्षणाज्जायते
सोऽयं दम्भधृतव्रतः प्रियतमे कर्तुं किंमप्युद्यतः ॥ १६ ॥ हे प्रियतमे ! जिसकी आँख कभी भी तुम्हारे मुख पर से हट कर सुखी नहीं हुई, जिसने हमेशा इस वक्षःस्थली को केवल तुम्हारी शय्या बनाया था, जिसने तुमसे कहा था कि 'तुम्हारे बिना सारा संसार क्षण भर में शून्य हो जाता है, वही यह झूठ ही ( एक पत्नी) व्रत को धारण करने वाला ( राजा उदयन) कुछ (द्वितीय विवाह रूप निघृण कार्य ) करने के लिए तैयार हो गया है ।। १९ ॥
(इस उद्धरण के बाद पन्चम अङ्कसे निम्न श्लोक को उद्धृत करते हैं । वस्तुतः मुद्रित तापसवत्सराज में भी चतुर्थ अङ्क २१ वें श्लोक के बाद समाप्त होता है। पांचवें अङ्क के प्रारम्भ की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर सम्पादक ने संकेत किया है कि बीच में ग्रन्थपात के कारण बहुत सा पाठ अप्राप्य रहा है । उसके बाद ये 'तयाभूते तस्मिन् मुनिवचसि' इत्यादि पद्य को उद्धृत कर इस 'भ्रूभङ्ग रुचिरे' इत्यादि पद्य को उदृत करते हैं जिसका पाठ इससे कुछ भिन्न है जो इस प्रकार है