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तृतीयोन्मेष:
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अत्र सकललोकप्रसिद्धशस्त्राद्युपकरणकलापाश्च जिगीषाव्यवहारान्मन्मथः सुकुमारोपकरणत्वाजिगीपा ..... ननु च भूतलादीनां चापाविरूपणाद्रूपकव्यतिरेक एवायम् । नैतदस्ति । रूपक व्यतिरेके हि रूपणं विधाय तस्मादेव व्यतिरेचनं विधीयते । एतस्मिन् पुनः सकललोकप्रमिद्धात्सामान्यव्यवहारतात्पर्याद् व्यतिरेचनम् । भूतलादीनां चापाविरूपणं विशेषान्तरनिमित्तमात्रमवधार्यताम् ।
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यहां पर समस्त जगती में प्रसिद्ध शस्त्रादिक उपकरणसमूह के कारण जीतने की इच्छा के व्यवहार से कामदेव सुकुमार उपकरणों वाला होने के नाते जिगीषा के प्रति आग्रह करता है । यह शङ्का उठाई जा सकती है कि भूतलादि पर चापादि का आरोप करने के कारण यह रूपाव्यतिरेक ही है । परन्तु ऐसा नहीं है । क्योंकि रूपकव्यतिरेक में आरोप करके उसी से पृथक्करण किया जाता है । इसमें तो सारे विश्व में प्रसिद्ध सर्वसाधारण व्यवहार रूप तात्पर्य से व्यतिरेक दिखाया जाता है । भूतलादि के ऊपर चापादि का आरोप दूसरे वैशिष्टय का निमित्तमात्र माना जाना चाहिए।
इस प्रकार व्यतिरेकालङ्कार का विवेचन समाप्त कर कुन्तक विरोधालङ्कार का विवेचन करते हैं । उनके अनुसार विरोध श्लेष को ही उद्भावित ( involve ) करता है अत: उससे भिन्न उसे स्वीकार करना उचित नहीं है । श्लेषेणाभिसम्भिन्नत्वात् ) इस अलङ्कार के विषय में ग्रन्थकार ने जो कारिका और वृत्ति दी है उसे पाण्डुलिपि की भ्रष्टता के कारण डा० डे उद्धृत नहीं कर सके ।
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इसके अनन्तर कुन्तक ने समासोक्ति अलङ्कार का विवेचन प्रस्तुत किया है । कुन्तक समासोक्ति को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। क्योंकि उनके अनुसार इसमें अन्य अलङ्कार की हैसियत से सुन्दरता की कमी होती है । ( अलङ्कारान्तरत्वेन शोभाशून्यतया )
इस प्रसङ्ग में वे भामह के समासोक्ति के लक्षण तथा उदाहरण को उद्धृत कर उसका विश्लेषण करते हैं जो इस प्रकार है
यत्रोक्ते गम्यतेऽन्योऽर्थस्तत्समान विशेषणः ।
सा समासोक्तिरुद्दिष्टा सङ्क्षितार्थतया यथा ।। १५१ ।। स्कन्धवानृजुरश्यालः स्थिरोऽनेकमहाफलः । जातस्तरुरयनोचैः पातितश्च नभस्वता ।। १५२ ।।
जहाँ ( एक वस्तु का ) वर्णन किए जाने पर उसके समान विशेषणों वाला दूसरा पदार्थ प्रतीत होता है उसे ( विद्वानों ने ) संक्षिप्तअर्थरूप होने के कारण - समासोक्ति नाम दिया है । जैसे ।। १५१ ।।