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वक्रोक्तिजीवितम् वाले हैं तथा जो रव अर्थात् शब्दों के लयस्थान हैं और जिन्होंने ( गोवर्धन ) पर्वत और पृथ्वी को (वराहावताररूप में.) धारण किया था, तथा देवताओं ने जिनका स्तुत्य नाम 'शशिमच्छिरोहर' ( अर्थात् राह का शिरश्छेद करने वाला ) बताया है ऐसे सब कुछ प्रदान करने वाले, एवं स्वयं यादवों का निवास ( द्वारका ) बनाने वाले अथवा विनाश करने वाले लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु स्वयं तुम्हारी रक्षा करें ॥ १४४ ॥ श्लेष के तीसरे प्रकार ( उभयश्लेष ) का उदाहरण है
सालामुत्पलकन्दलैः प्रतिकचं स्वायोजितां बिभ्रती नेत्रेणासमहाष्टपातसुभगेनोद्दोपयन्ती स्मरम् । कात्रीदामनिबद्धभषि दधती व्यालम्बिना वाससा
मुर्तिः कामरिपाः सिताम्बरधरा पायाच्च कामस्त्रि: ।। ४५ || निकल गए हुए मांसवाले मुण्डदलों के द्वारा बालों की ओर से अपने द्वारा गुम्फित माला को धारण करती हुई, विषम दृष्टि के डालने के कारण सुन्दर सूर्य के समान तीसरी आँख के द्वारा कामदेव को जलाती हुई वस्त्र के विना सर्प को घुमचियों की माला से कस कर बंधी हुई कुटिलता वाले ढङ्ग से धारण करती हुई भस्म और अम्बर को धारण करने वाली कामारि भगवान् शिव की मूर्ति नीलकमल के मृणालों से बालों के जूडे की ओर सुन्दर ढङ्ग से आयोजित माला को धारण करती हुई और अपने कटाक्षों के निपात के कारण सुन्दर नेत्र से काम को उद्दीप्त करती हुई, लटकते हुए अधोवस्त्र से रशना की जंजीर से बनी हुई विच्छित्ति को धारण करती हुई श्वेतवस्त्रधारिणी रति देवी की रक्षा करे ॥१४॥
इसके अनन्तर कुन्तक ने अधोलिखित श्लोक को 'असत्यभूतश्लेष' के उदाहरण रूप में उद्धृत किया है
दृष्टया केशव ! गोपरागहतया किञ्चिन्न दृष्टं मया तेनात्र स्खलितास्मि नाथ ! पतितां किन्नाम नालम्बसे । एकस्त्वं विषमेषुखिन्नमनसां सर्वाबलानां गति
गोप्येवं गदितः सलेशमवताद् गोष्ठे हरिर्वश्विरम् ।। २४६ ।। ऐ केशव ! गोपेश्वर कृष्ण के प्रेम के कारण अपहृत कर ली गई हुई दृष्टि के द्वारा मैं कुछ न देख सकी, इसी वजह से मैं स्खलित हो उठी हूँ। ए स्वामी भगवान कृष्ण मुझ पतित को क्यों नहीं सहारा देते, अकेले तुम्हीं तो खिन्नहृदय सारे निर्बलों की विषमावस्था में गति हो, गोपी के द्वारा आकृतभरे ढङ्ग से इस प्रकार कहे गए हुए भगवान् विष्णु अनन्तकाल तक तुम्हारी रक्षा करें (श्लेश पक्ष में-गोपरागहृतया का अर्थ गोधूलि से छीन ली गई हुई दृष्टि से है