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तृतीयोन्मेषः
'प्रसादयन्ती रवेरभ्यधिकं तापं शरश्चकार' इति समयसम्भवःपदार्थस्वभावस्तद्वाचक- 'वारिद' - शब्दाभिधानं विना प्रतीयमानोत्प्रेक्षा लक्षणेन रसवदलङ्कारेण कविना कामपि कमनीयतामधिरोपितः, प्रतात्यन्तरमनोहारिणां 'सकलङ्का 'दीनां वाचकादीनामुपनिबन्धनात्, 'पाण्डुपयोघरेणानखक्षता भमैन्द्रं धनुर्दधाना' इति श्लेषोपमयोश्च तदानुगुण्येन विनिवेशनात् । एवं 'सकलङ्कमपि प्रसादयन्ती ( शरत् ) परस्याभ्यधिकं तापं चकार' इति रूपकालङ्कारनिबन्धनः प्रकटाङ्गनावृत्तान्तसमारोपः सुतरां समन्वयमासादितवान् । अत्रापि प्रतीयमानवृत्ते रसवदलङ्कारस्य प्राधान्यम्, तदङ्गत्वमुपमादीनामिति पूर्ववदेव सङ्गतिः ।
यहाँ कवि ने 'प्रसन्न करती हुई शरत् ने सूर्य के ताप को और भी अधिक कर दिया' इस प्रकार के अपने समय ( ऋतु ) के अनुसार उत्पन्न होनेवाले पदार्थ के स्वभाव को, उसके वाचक 'वारिद' या ( बादल ) शब्द का कथन किये विना ही गम्यमान उत्प्रेक्षा रूप रसवदलंकार के द्वारा किसी अपूर्व रमणीयता से युक्त कर दिया है । ( क्योंकि कवि ने ) उसी ( उत्प्रेक्षा रूप रसवदलंकार ) के अनुरूप अन्य प्रतीति के कारण मनोहर 'सकलंक' आदि शब्दों का प्रयोग किया है तथा 'पाण्डु पयोधर से आर्द्रनखक्षताभ इन्द्रधनुष को धारण किए हुए' ऐस वाक्य में श्लेष एवं उपमा अलंकार की योजना को है । इस प्रकार 'कलंकयुक्त को भी प्रसन्न करती हुई शरत् ने दूसरे ( नायक ) के ताप को और भी अधिक कर दिया' इस प्रकार रूपकालंकार का हेतुभूत स्पष्ट (वेश्या) अङ्गना के व्यवहार का ( शरद पर ) आरोप अत्यधिक समन्वित हो गया है । यहाँ पर भी गम्यमान स्थिति वाला ( उत्प्रेक्षारूप रसवदलंकार ही प्रधान है तथा उपमा आदि उसके अङ्ग रूप हैं इस प्रकार पहले की ही भाँति यहाँ भी सङ्गति होती है ।
[ इसके बाद कुन्तक ने अधोलिखित श्लोक उदवृत किया है ] - लग्नाद्विरेफाञ्जनभक्तिचित्रं मुखे मधुश्रीतिलकं प्रकाश्य । रागेण बालारुणकोमलेन चूतप्रवालोष्ठमलञ्चकार ।। ६७ ।। अयं रसवतां सर्वालङ्काराणां चूडामणिरिवाभाति । वसन्त शोभा ने भ्रमरूपी अञ्जन की रचना से विचित्र तिलक को मुख पर प्रकट कर प्रातःकाल के सूर्य के समान सुन्दर राग ( रक्तिमा ) से आम्रपल्लव रूप अधर को अलंकृत किया ।। ६७ ।
( एसके बाद रसवदलंकार का उपसंहार करते हुए कुन्तक कहते हैं ) कि यह ( रसवदलंकार) रसयुक्त ( काव्यों के ) समस्त अलंकारों का शिरोरत्न -सा सुशोभित होता है ।