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वक्रोक्तिजीवितम्
[ अर्थात् ] काम तथा आदि के कारण अनौचित्य से प्रवृत्त होने वाले भावों और रसों का निबन्ध ऊर्जस्वि ( अलङ्कार ) कहा जाता है ।। ५० ।।
(जैसे ) इनका काम ऐसा प्रवृद्ध हुआ कि ये ( शिव ) सन्मार्ग को छोड़ कर हठात् हिमगिरि की सुता (पार्वती) को पकड़ने के लिए प्रवृत्त हुए ॥ ५१ ॥
[यहाँ शिव की हठात् प्रवृत्ति के कारण उद्भट के अनुसार अनौचित्य है अतः ऊर्जस्वि अलङ्कार है । ]
[इसके बाद कुन्तक भामह के विषय में यह कहते हुए कि किन्हीं ने उदाहरण को ही वक्तव्य होने के कारण लक्षण समझते हुए उसी का प्रदर्शन किया है । ( कैश्चिदुदाहरणमेव वक्तव्याल्लक्षणं मन्यमानैस्तदेव प्रदर्शितम् ) उनके ऊर्जस्वि अलङ्कार के उदाहरण को उद्धृत करते हैं जो इस प्रकार है ]
ऊर्जस्वि कर्णेन यथा पार्थाय पुनरागतः । द्विः मन्दधाति किं कर्णः शल्येत्यहिरपाकृतः ।। ५२ ।।
[ इसी विषय में वे एक अन्य अधोलिखित दण्डी का पद्य भी उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं ]
अपहर्ताऽहमस्मीति हृदि ते मास्म भूद्भयम् ।
विमुखेषु न मे खङ्गः प्रहत जातु वाञ्छति ।। ५३ ।। (युद्ध में पीठ दिखा कर भागते हुए किसी योद्धा के प्रति किसी योद्धा की यह उक्ति है कि ) मैं तुम्हारा अनिष्ट करने वाला हूं इस लिये तुम्हारा हृदय भयभीत न हो क्योंकि मेरा खड्ग कभी भी पीठ दिखाने वालों पर प्रहार नहीं करना चाहता ।। ५३ ॥
[उद्भट के लक्षण का विवेचन करते हुए वे सङ्केत करते हैं कि यदि भाव अनौचित्यप्रवृत्त है तो वहाँ रसभङ्ग हो जायगा। इसके समर्थन में वे ध्वन्यालोक पृष्ठ ३३० पर उद्धृत कारिका
अनौचित्याहते नान्यद्रसभङ्गस्य कारणम् ॥
को उद्धृत करते हैं। लेकिन जैसा कि उदाहरण उद्भट ने प्रस्तुत किया है उसके विषय में वे कहते हैं कि वहाँ-]
समुचितोऽपि रसः परमसौन्दर्यमावहति, तत्र कथमनौचित्यपरिम्लानः कामादिकारणकल्पनोपसंहतवृत्तिरलङ्कारताप्रतिभासः प्रयास्यति ।
समुचित भी रस अत्यधिक सुन्दरता को धारण करता है, वहाँ भला कैसे औचित्य के कारण म्लान कामादि कारणों की कल्पना से नष्टवृत्ति होकर अलङ्कार की प्रतीति होगी।
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