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वक्रोक्तिजीवितम्
प्रस्तुत करते हैं तथा भामह के विषय में कहते हैं कि उन्होंने केवल उदाहरण को ही लक्षण मानते हुए प्रेयः अलङ्कार का लक्षण नहीं किया ( उदाहरणमात्रमेव लक्षणं मन्यमानः ) । दण्डी ने भामह के ही उदाहरण में एक दूसरी पङ्क्ति जोड़कर उसी को उद्धृत किया है जो कि वाक्य को पूर्ण कर देता है तथा अलङ्कार को स्पष्ट कर देता है । वह पंक्ति है 'कालेनैषा भवेत्प्रीतिस्तवैवागमनात्पुनः ' । इस लिए कुन्तक ने जो सम्पूर्ण पद्य उदधृत किया है, वह इस प्रकार है- ]
प्रेयो गृहागतं कृष्णमवादीद्विदुरो यथा । अद्य या मम गोविन्द जाता त्वयि गृहागते । कालेनैषा भवेत्प्रीतिस्तवैवागमनात्पुनः ॥ ४५ ॥
'प्रेय:' ( अलङ्कार का उदाहरण ) जैसे घर आए हुए कृष्ण से विदुर ने कहा कि हे गोविन्द ! आज आपके घर आने पर मुझे जो प्रसन्नता हुई वह फिर हमें आपके ही आगमन से होवे ॥ ४५ ॥
तदेवं न दक्षमतामर्हति । तथा च कालेनेत्युच्यते तदेव वर्ण्यमानविषयतया वस्तुन: स्वभाव:, तदेव लक्षणकरणमित्यलङ्कार्य न किञ्चिदवशिष्यते । तस्यैवोभयमलङ्कार्यमलङ्करणत्वश्चेत्य युक्तियुक्तम् । एकक्रियाविषयं युगपदेकस्यैव वस्तुनः कर्मकरणत्वं नोपपद्यते । यदि दृश्यन्ते तथाविधानि वाक्यानि येषामुभयमपि सम्भवति ( यथा ) -
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लेकिन कुन्तक आलोचना करते हैं
तो इस प्रकार यह क्षोदक्षम नहीं हो सकता । क्योंकि जो 'कालेन' ऐसा कहते हो वही वर्ण्यमान विषय होने के कारण पदार्थ का स्वभाव है और वह ( प्रेयोऽलङ्कार के ) लक्षण का प्रकृष्टतम हेतु है इस प्रकार कोई अलङ्कार्य बचता ही नहीं । तथा उसी का अलङ्कार्य तथा अलङ्कार दोनों होना युक्तिसङ्गत नहीं होता क्योंकि एक वस्तु की एक ही समय में एक ही क्रिया की कर्मता और करणता संगत नहीं होती । ( इस पर पूर्वपक्षी कहता है कि नहीं ऐसे अनेकों वाक्य हैं जहाँ एक ही वस्तु एक ही क्रिया का कर्म और करण दोनों हैं ) अगर उस प्रकार के वाक्य, दिखाई पड़ते हैं जिनमें ( एक ही क्रिया का कर्म और करण हो ) दोनों सम्भव होता है जैसे
आत्मानमात्मना वेत्सि सृजस्यात्मानमात्मना । आत्मना कृतिना च त्वमात्मन्येव प्रलीयसे ॥ ४६ ॥
हे भगवन् ! आप अपने को ( अर्थात् आदि में अपने ब्रह्म स्वरूप को तथा उसके सृष्टि उपाय को ) स्वयं ही जानते हैं । अपने आप अपनी सृष्टि