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________________ तृतीयोन्मेषः २९५ रूढिरुपपद्यते । यस्मात्तद्वयतिरिक्तवृत्तिरातिशयो न कश्चिल्लभ्यते । रसोदाहरणं यथा यहां यद्यपि पदार्थ में सम्भव होने वाले केवल रसिकों के द्वारा जानने योग्य स्वभावमात्र को प्रस्तुत किया गया है फिर भी असामान्य ढंग से व्यवस्थित होने के कारण इस स्वभाव के, कुछ ही निपुणों के अनुभवैकगम्य एवं अपूर्व वर्णन के कारण मनोहर, पदार्थों में अन्तर्भूत, सूक्ष्मता के कारण सुन्दर किसी उस लोकोत्तर स्वरूप को व्यक्त किया गया है जिससे वाक्यवक्रतारूप कविकौशल किसी अपूर्व पद को पहुँच गया है। क्योंकि उससे भिन्न रहनेवाला दूसरा कोई अतिशय नहीं प्राप्त होता है। लोको यादृशमाह साहसधनं तं क्षत्रियापुत्रकं स्यात्सत्येन स तादृगेव न भवेद्वार्ता विसंवादिनी । एकां कामपि कालविप्रषममी शौर्योष्मकण्डूव्यय व्ययाः स्युश्विरविस्मृतामरचमूडिम्बाहवा बाहवः ।। २२ ।। रस का उदाहरण जैसे-( सम्भवतः राम को उद्देश करके रावण कहता है कि-) साहसरूप धन वाले इस क्षत्रिया के बच्चे को लोक जिस प्रकार का (पराक्रमी ) कहता है वह भले ही वैसा क्यों न हो लोगों की बातें झूठी न हों फिर भी देवताओं की सेना के वीरों के साथ के युद्ध को भूली हुई मेरी ये भुजायें समय की किसी एक भी बूंद के लिए ( अर्थात् क्षणभर के लिए ही ) पराक्रम की गर्मो से उत्पन्न खुजलाहट को मिटाने के लिए व्याकुल हो जायें ( तो मैं उस दुष्ट का पराक्रम देख लूं ) ॥ २२॥ ___ अत्रोत्साहाभिधानः स्थायिभावः समुचितालम्बनविभावलक्षणविषयसौन्दर्यातिशयश्लाघाश्रद्धालुतया विजिगीषोर्वेदग्ध्यभङ्गीभणितिवैचित्र्येण परां परिपोषपदवीमधिरोपितः सन्. रसतामानीयमानः किमपि वाक्यवक्रभावस्वभावं कविकौशलमावेदयति । अन्येषां पूर्वप्रकरणोदाहरणानां प्रत्येकं तथाभिहितिजीवितलक्षणं वक्रत्वं स्वयमेव सहृदयविचारणीयम् । यहां पर उत्साह नाम का स्थायीभाव अत्यन्त उपयुक्त आलम्बन विभाव ( राम ) रूप विषय के सौन्दर्यातिशय की प्रशंसा के प्रति विश्वस्त होकर विजय की इच्छा रखनेवाले ( रावण ) की चातुर्यपूर्ण ढंग के कथन की विचित्रता के द्वारा परिपोष की चरम सीमा को पहुंचाया जाकर रसरूपता को प्राप्त कराया जाता हुआ वाक्यवक्रतारूप किसी अपूर्व कविकौशल को व्यक्त करता है। अन्य पहले के प्रकरणों में उद्धृत उदाहरणों में से प्रत्येक
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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