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( ३ ) और अचेतन पदार्थों के प्रसङ्ग में उपमादि अलंकार मानना चाहिए। कुन्तक ने इस पक्ष को उठाकर उसका विशेष खण्डन स्वयं नहीं किया क्योंकि इसका खण्डन भानन्दवर्धन कर चुके थे। अतः इन्होंने उसका केवल निर्देश मात्र कर दिया है। इसके अनन्तर कुन्तक आनन्दवर्धन के भी रसवदलंकार के लक्षणः
प्रधानेऽन्यत्र वाक्याथै यत्राङ्गं तु रसादयः।
काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति मे मतिः ।। से भी सहमत नहीं हैं। वे आनन्दवर्धन द्वारा उद्धृत 'क्षिप्तो हस्तावलग्नः' और "किं हास्येन न मे प्रयास्यसि' उदाहरणों का खण्डन करते हैं। उनके लक्षण का खण्डन करने में भी कुन्तक के दो तर्क सामने आते हैं:
१. रस अलंकार्य है । यह अलंकार नहीं हो सकता ।
२. जब आप 'तस्मिन्नलंकारो रसादिरिति म मतिः' कहते हैं तो फिर आपको रसालकार कहना चाहिए 'रसवदलंकार' नहीं क्योंकि 'मत्' प्रत्तय का कोई श्राशय नही प्रतिपादित किया गया।
(२) रसवदलंकार के खण्डन का दूसरा आधार था शब्द और अर्थ की असति । कुन्तक का कहना है कि 'रसवदलंकार' में आप दो प्रकार समास कर सकते हैं-(क) षष्ठीसमास-जिसमें रस विद्यमान है वह हुश्रा रसव और उसका अलंकार रसवदलंकार । इस पक्ष को स्वीकार करने में आपत्ति यह है कि रस से भिन्न कौन सा पदार्थ जिसमें रस विद्यमान है और उसका यह अलंकार है। यदि उत्तर यह दें कि काव्य में रस विद्यमान है, तो काग्य का अलंकार केवल 'रसवद्' ही नही है बल्कि अन्य सभी अलंकार है। अतः इसकी अन्य अलंकारों से कोई विशिष्टता रह ही नहीं जायगी।
(ख) विशेषण समास-अगर हम कहें कि जो रसवान् और अलंकार है वह रसवदलंकार है तो यहां उस विशेष्यभूत अलंकार के अतिरिक्त और कोई पदार्थ है ही नहीं जो अलंकार बन सके। अतः शब्द और अर्थ की संगति भी न होने से 'रसवदलवार' नहीं हो सकता ।
कुन्तकाभिमत रसवदलकार का लक्षण-इस प्रकार सभी प्राचीन प्राचार्यों के रसचदलङ्कार के स्वरूप का खण्डन कर कुन्तक अपना लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
जो उपमा पकादि अलङ्कार काव्य में श्रृंगारादि रसों के समान सरसता का सम्पादन करते हुए सहृदयों को प्राहादित करने में समर्थ होते हैं वे रस के तुल्य होने के कारण रसवदलवार कहे जाते हैं। जैसे कोई क्षत्रिय ब्राह्मणों के तुल्य आचार करने पर 'ब्राह्मणवत्क्षत्रिय' कहा जाता है ।