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द्वितीयोन्मेषः
२६१ है, एवं बार-बर गले तक बहता हुआ आँसू तुम्हारे स्तनतट को कँपा रहा है (इससे जाहिर है कि) क्रोध (ही) तुम्हारा प्रिय बन गया है, न कि मैं ।।१०१॥
अत्र 'न त्वहम्' इति वक्तव्ये, 'न तु वयम्' इत्यनन्तरङ्गत्वप्रतिपादनार्थं ताटस्थ्यप्रतीतये बहुवचनं प्रयक्तम् । यथा वा -
वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ॥१०२॥ अत्रापि पूर्ववदेव ताटस्थ्यप्रतीतिः । यथा वा--
फुल्लेन्दीवरकाननानि नयने पाणी सरोजाकराः ॥१०३॥ यहाँ 'न कि मैं' (तुम्हारा प्रिय हूँ ) ऐसा कहने के बजाय 'न कि हम' ( तुम्हारे प्रिय हैं ) ऐसा कहने में अपने अन्तरङ्ग न होने का प्रतिपादन करने के लिए, साथ ही अपनी तटस्थता का बोध कराने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है । अथवा जैसे
( शाकुन्तल में शकुन्तला के ऊपर मंडराते हुए भ्रमर को देखकर दुष्यन्त का यह कथन कि ) हे भ्रमर ! हम तो असलियत का पता लगाने में ही मारे गए ( लेकिन ) तुम कृतकृत्य हो गए ।। १०२ ॥
यहाँ पर भी पहले ( उदाहरण ) की ही तरह ( वयं) के द्वारा ताटस्थ्य की प्रतीति कराई गई है।
अथवा जैसे-( उस नायिका की) आँखें विकसित नीलकमल के वन तथा हाथ कमलों की खान हैं ॥१०३॥
अत्र द्विवचनबहुवचनयोः सामानाधिकरण्यलक्षणः संख्याविपर्यासः सहृदयहृदयहारितामावहति । यथा वा
शास्त्राणि चक्षुर्नवम् इति ॥२०४॥ अत्र पूर्ववदेवैकवचनबहुवचनयोः सामानाधिकरण्यं वैचित्र्यविषाया
यहाँ द्विवचन एवं बहुवचन का सामानाधिकरण्यरूप वचनों का परिवर्तन सहृदयों के लिये मनोहर हो गया है । अथवा जैसे
शास्त्र ( रावण की ) अभिनव दृष्टि है । यह ॥ १०४ ॥
यहाँ पहले (उदाहरण) की ही तरह एकवचन और बहुवचन का सामानाधिकरण्य विचित्रता की सृष्टि करता है।
एवं संख्यावक्रतां विचार्य तद्विषयत्वात् पुरुषाणां क्रमसमर्पितावतरां पुरुषवक्रता विचारयति