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द्वितीयोन्मेषः
सर्व तद्विहितं तथाप्युदधिना नैवोपरोधः कृतः
पाणिः संप्रति मे हठात् किमपरं स्प्रष्टुं धनुर्घावति ॥ ६७ ॥ दैन्य को स्वीकार करने के विषय में समुत्सुक मधुकरी वृत्ति की शिक्षा इक्ष्वाकुवंशियों ने कभी भी ग्रहण नहीं की । रघुकुल में भला कब सेवा भाव संवत ( किसी के सामने ) मस्तक पर रख कर हाथ जोड़ने की बात सुनी गई । परन्तु वह सब किया गया फिर भी सागर ने बाँध नहीं बँधने दिया । और क्या अब तो मेरा हाथ बरबस धनुष का स्पर्श करने के लिए दौड़ा जा रहा है ।। ९७ ।।
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श्रत्र पाणिनि धनुर्ग्रहीतुमिच्छामीति वक्तव्ये पाणिः करणभूतस्य कर्तृत्वाध्यारोपः कामपि कारकवक्रतां प्रतिपद्यते ।
यथा वा
स्तनद्वन्द्वम् इत्यादौ ॥ ६८ ॥
वहाँ हाथ से धनुष ग्रहण करना चाहता हूँ यह कहने के बजाय करणभूत पर कर्तृत्व के आरोप वाला पाणि किसी अपूर्व कारकवक्रता को प्रस्तुत करता है ।
यथा वा-
निष्पर्यायनिवेशपेशल रसैरन्योन्यनिर्भसिभिहंस्ताप्रेर्युगपनिपत्य दशभिर्वामैर्वृतं कार्मुकम् । सव्यानां पुनरप्रथयसि विधावस्मिन् गुणोरोपणे मत्सेवाविदुषामहंप्रथमिक काव्यम्बरे वर्तते ॥ ६६ ॥
अथवा जैसे
( रावण के ) अपरिवर्तनीय ढंग से ग्रहण करने के विषय में पेशल अभिनिवेश वाले और एक दूसरे की भर्त्सना करने वाले दसों बायें हाथों के अगले भागों के द्वारा एक साथ आगे बढ़कर धनुष पकड़ा गया और अपनी सेवा को भलीभांति जानने वाले दाहिने हस्तायों की इस धनुष के ऊपर प्रत्यश्वा चढ़ाने की प्रक्रिया को सिद्धि के अभाव में सारे आकाश में एक अनिर्वचनीय अहमहमिका फैली हुई है ।। ९९ ॥
अत्र पूर्ववदेव कर्तृत्वाध्यारोपनिबन्धनं कारकवऋत्वम् ।
यथा वा
बद्धस्पर्द्ध इति ॥ १०० ॥
यहाँ पर भी पहले की ही तरह कर्तृत्व के आरोप वाली कारकवक्रता है। अथवा जैसे- 'बद्धस्पर्धा' इत्यादि पहले उदा० सं० १।६६ पर उत श्लोक |