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________________ २५४ वक्रोक्तिजीवितम् मिठास से भरी यह बात कहने पर चूडाचन्द्र के लगाये जाते समय हर्ष विभार शिव का अनिर्वचनीय गर्व सर्वातिशायी है ।। ९३ ।। अत्र 'कोपि' इत्यनेन सर्वनामपदेन तदनुभवैकगोचरत्वादव्यपदेश्यत्वेन सातिशयः शर्वस्य गर्व इति कतसंवृतिः । जयति सर्वोत्कर्षेग वर्तते इति क्रियावैचित्र्यनिबन्धनम् । यहाँ 'कोई' ( कोऽपि ) इस सर्वनाम पद के द्वारा केवल शङ्कर के अनुभव द्वारा ही जाने जा सकने वाले होने के कारण अनिर्वचनीयता के द्वारा शंकर के किसी आतिशय पूर्ण घमण्ड ( का कथन कर ) कर्ता को छिपाया गया है जो 'जयति' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान है इस क्रिया की विचित्रता का कारण है। इत्ययं पदपूर्धिवक्रभावो व्यवस्थितः । दिङ्मात्रमेवैतस्य शिष्टं लक्ष्य निरूप्यते ॥ १४ ॥ इति संग्रहश्लोकः। इस प्रकार यह पदपूर्वाद्ध की वक्रता की व्यवस्था की गई है। ( यथा उक्तविवेचन रूप में) इस प्रकार इसका केवल एक हिस्सा ( बताया गया है ) शेष ( वक्रतायें ) लक्ष्य (काव्यादि) में दिखाई पढ़ते हैं ॥ ९४ ॥ यह संग्रह श्लोक है। तदेवं सुप्तिङन्तयो योरपि पदपूर्वाधस्य प्रातिपदिकस्य धातोश्च यथायुक्ति वक्रतां विचार्यदानों तयोरेव यथास्वमपरार्धस्य प्रत्ययलक्षणस्य वक्रतां विचारयति । तत्र क्रियांवैचित्र्यवक्रतायाः समनन्तरसंभविनः क्रमसमन्वितत्वात् कालस्य वक्रत्वं पर्यालोच्यते, क्रियापरिच्छेदकत्वात्तस्य । तो इस प्रकार सुबन्त तथा तिङन्त दोनों पदों के पूर्वाद्ध प्रातिपदिक एवं धातु की यथोचित वक्रता का विवेचनकर अब उन्हीं दोनों के यथोचित प्रत्यय रूप उत्तरार्द्ध की वक्रता का विवेचन प्रस्तुत करते हैं। उनमें क्रियावैचित्र्य वक्रता के तुरन्त बाद में सम्भव होने वाले अतएव क्रमानुकूल तथा साथ ही, उसके क्रिया की अवधि होने के कारण, काल की वकता का विवेचन करते हैं। औचित्यान्तरतम्येन समयो रमणीयताम् । याति या भवत्येषा कालवैचित्र्यवकता ॥ २६ ।।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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