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( ३६ ) के योग्य, तथा धर्मादि पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि कराने वाले अपने व्यापार से रमणीय स्वरूप कवियों के वर्णन का बनता है ।
वाक्यवक्रता एवम् अलङ्कार सुकुमार, विचित्र एवं मध्यम मार्गों में विद्यमान वक शब्दों, अर्थो, गुणों एवं अलङ्कारों के सौन्दर्य से भिन्न, कवि की लोकोत्तर कुशलतारूप, किसी अनिर्वचनीय ढंग की शक्ति के ही प्राणवाली वाक्य की वकता होती है। जिस प्रकार किसी रमणीय चित्र में उसके फलक, रेखा-विन्यास, रंग और कान्ति से भिम ही चित्रकार की कुशलता प्राणरूप में मलकती रहती है उसी प्रकार वाक्य में मार्ग आदि, उनके शब्द, अर्थ, गुण एवं अलंकार आदि से बिल्कुल भिन्न कवि की कुशलता रूप वाक्यवक्रता, जो कि सहृदयहृदयसंवेद्य एवं समस्त प्रस्तुत पदार्थों की प्राणभूत होती है, दिखाई पड़ती है ।
यद्यपि पदार्थों के स्वाभाविक सौकुमार्य को रमणीय ढंग से प्रस्तुत करने में, अथवा शृक्षारादि रसों की मनोहारी ढंग से अबाध निष्पत्ति कराने में भी वाक्यवक्रता रूप कवि-कौशल ही प्राणभूत होता है फिर भी रमणीय ढंग से अलंकार को प्रस्तुत करने में कवि कौशल का ही विशेष अनुग्रह होता है, अतः यथापि अलंकार पृयग् भाव से स्थित होते हैं फिर भी उनका कविकौशलाधीन स्थित वाली वाक्यवकता में ही अन्तर्भाव युक्तिसंगत है इसीलिए कुन्तक ने प्रथम सन्मेष की २० वी कारिका में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया था
वाक्यस्य बक्रभावोऽयो भिद्यते यः सहस्रधा। यत्रालंकारवर्गोऽसौ सर्वोऽप्यन्तर्भविष्यति ॥
अलङ्कार-विवेचन प्राचार्य कुन्तक ने पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत अलंकारों में से केवल बीस अलंकार नाम्ना स्वीकार किए हैं। उनमें प्रायः सभी अलंकारों को उन्होंने अपने ढा से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। तथा जिन अलंकारों के प्राचीन
आलंकारिकों द्वारा दिये गये लक्षण उन्हें युक्तियुक्त नहीं प्रतीत हुए उनका अपने तर्को द्वारा खण्डन कर उन्होंने नया लक्षण प्रस्तुत किया है। वे स्वीकृत २० अलंकार हैं
१. रूपक २. अप्रस्तुतप्रशंसा ३. पर्यायोक्त ४. व्याजस्तुति ५. उत्प्रेक्षा ६. अतिशयोक्ति ७. उपमा ८. श्लेष ९. व्यतिरेक १०. दृष्टान्त १. अर्थान्तरन्यास १२. आक्षेप १३. विभावना २४. ससन्देह १५. अपहुति १६. संसृष्टि