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द्वितीयोन्मेष:
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करके अर्थात विख्यात निष्पन्नता की अवज्ञा करके । तो यहाँ इसका आशय
है क्योंकि साध्य रूप से भलीभांति सिद्ध न होने के कारण वर्ण्यमान विषय कम पुष्ट हो पाता है अतः सिद्ध रूप से कथन पूर्णतया सम्पन्न होने के कारण प्रस्तुत पदार्थ का भलीभाँति पोषण करता है । जैसे
श्वासायासमलीमसाधररुचेर्दोःकन्दलीतानवात केयूरायितमङ्गदैः परिणतं पाण्डिम्नि गण्डत्विषा । अस्याः किञ्च विलोचनोत्पलयुगेनात्यन्तमश्रुत्रुता
तारं तादृगपाङ्गयोररुणितं येनोत्प्रतापः स्मरः ॥७५ ॥ ( गरम ) सांसों के चलने के आवास के कारण धूमिल पड़ गए हए अधर के कान्तिवाली इसकी भुजाओं के कन्दली की कृशता के कारण कंकणों के द्वारा बाजूबन्द की तरह का आचरण किया गया है और कपोल की कान्ति के द्वारा सफेदी में परिणत किया गया है, और तो और, उसके नेत्र कमलों के युगल के द्वारा अत्यधिक आँसू बहाने के कारण कोरों पर इतनी तेज अरुणिमा उत्पन्न करा दी गई कि जिसके कारण काम अत्यधिक तापवाला हो उठा ।। ७५ ॥
येत्र भावस्य सिद्धत्वेनाभिधानमतीव चमत्कारकारि ।
यहाँ पर भाव का सिद्ध रूप से प्रतिपादन अत्यन्त ही वैचिश्य को उत्पन्न करने वाला है।
एवं भाववक्रतां विचार्य प्रातिपदिकान्तर्वतिनी लिङगवतां विचारयति___ इस प्रकार भाववक्रता का विवेचन कर प्रातिपदिक के अन्दर स्थित लिङ्गवक्रता का विवेचन करते हैं -
भिनयोलिङगयोर्यस्यां सामानाधिकरण्यताः।
कापि शोभाभ्युदेत्येषा लिङ्गवैचित्र्यवकता ॥ २१ ॥ जिसमें अलग-अलग लिङ्गों के सामानाधिकरण्य से किसी अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि होती है, इसे लिङ्गवैचिव्यवक्रता कहते हैं ॥ २१ ॥ ___ एषा कथितस्वरूपा लिङ्गवैचित्र्यवक्रतास्यादिविचित्रभाववक्रताविच्छित्तिः। भवतीति सम्बन्धः, क्रियान्तराभावात् । कोदशीयस्यां यत्र विभिन्नयोविभक्तस्वरूपयोलिङ्गयोः सामानाधिकरण्यस्तुल्याश्रयत्वादेकद्रव्यवत्तित्वात् काप्यपूर्वा शोभाभ्युदेति कान्तिरल्लसति । यथा