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वक्रोक्तिजीवितम्
ही अपने में उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता का समारोप करने की इच्छा से युक्त रूप में, उपनिबद्ध करता है। ( वह पहला प्रकार है ) अथवा (२) (जहाँ किसी पदार्थ में उत्कृष्टता अथवा निकृष्टता का समारोप करने के लिए ) किसी ( उस पदार्थ से भिन्न ) दूसरे वक्ता को उपनिबद्ध करताः है । वह दूसरा प्रकार है)। जैसे---
स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्वलाका घना वाताः शीकरिणः पयोदसुहवामानन्दकेकाः कलाः। कामं सन्तु दृढं कठोरहृदयो रामोऽस्मि सर्व सहे वैदेही तु कथं भविष्यति हहो हा देवि धीरा भव ॥ २७ ॥
( अपनी ) मसृण एवं नीलवर्ण छवि से अन्तरिक्ष को व्याप्त कर देने वाले, एवं अत्यंत शोभायमान बकपक्तियों से युक्त ये बादल, (जल की) बंदों से युक्त ( ठंढी-ठंढी ) ये हवायें, तथा बादलों के मित्र ( इन ) मयूरों की (ये ) आनन्दजन्य अव्यक्त मधुर ध्वनियाँ, (विरहियों को कष्ट देने वाली ये सभी वस्तुयें ) भले ही हों ( उनसे मेरा कुछ नहीं बिगड़ने का क्योंकि ) मैं तो अत्यधिक निष्ठुर हृदय वाला राम (हूँ न ) सब कुछ सहन कर लूंगा। लेकिन हाय ( अत्यंत सुकुमारी ) जानकी ( कैसे मेरे विरह में इन्हें सहन कर सकेगी ) किस दशा में होगी? हा देवि ! (सीते ! जहाँ भी हो ) धैर्य धारण करो ॥ २७ ॥
अत्र 'राम'-शब्देन 'दृढं कठोरहृदयः' 'सर्व सहे' इति यदुभाभ्यां प्रतिपादयितुं न पार्यते, तदेवंविधविविधोद्दीपनविभावविभवसहनसामर्थ्यकारणं दुःसहजनकसुताविरहव्यथाविसंष्ठुलेऽपि समये निरपत्रपप्राणपरिरक्षावचक्षण्यलक्षणं संज्ञापदनिबन्धनं किमप्यसंभाव्यमसाधारणं क्रौर्य प्रतीयते । वैदेहीत्यनेन जलधरसमयसुन्दरपदार्थसंदर्शनासहत्वसमर्पकं सहजसौकुमार्यसुलभं किमपि कातरत्वं तस्याः समर्थ्यते । तदेव च पूर्वस्माद्विशेषाभिधायिनः 'तु'-शब्दस्य जीवितम्। - इस उदाहरण में 'दृढं कठोरहृदयः' और 'सर्व सहे' इन दोनों पदों के द्वारा भी जिस ( अर्थ ) का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता था उस इस तरह के नाना प्रकार के उद्दीपन विभावों के वैभव' को सहन कर सकने के सामर्थ्य के कारणभूत, जनकसुता की असह्य विरहव्यथा के कारण बिगड़े हुए दिनों में भी निर्लज्ज ढङ्ग से प्राणरक्षा करने की चतुरता के स्वरूप वाले द्रव्य शब्द हेतुक असम्भव और अलोकसामान्य एवं अनिर्वचनीय क्रौर्य को राम शब्द प्रतीत करा देता है। 'वैदेही' इस पद के द्वारा उस सीता का