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वक्रोक्तिजीवितम् वक्रोक्ति जीवित नामक ) ग्रन्थ में अधिक विस्तार से (प्रतिपादित ) नहीं किया जाता। किस कारण से-दूसरी शोभा के अभाव के कारण स्थान के निर्धारण से भिन्न ( किसी ) दूसरी शोभा अथवा सौन्दर्य के असम्भव होने से। साथ ही इसका वर्ण विन्यास की ही विचित्रता को छोड़कर कोई दूसरा जीवित ( भूत तत्त्व ) नहीं दिखाई पड़ता। इसलिये ( इस यमक अलङ्कार को ) अभी कहे गये ( वर्णविन्यासवक्रता रूप ) अलङ्कार का एक प्रकार ही स्वीकार करना सङ्गत है। इसके उदाहरण रूप में शिशुपालवध चतुर्थ सर्ग के कुछ ही वाक्यार्थ को शीघ्र बोधित करा देने वाले यमक ग्रहण किये जा सकते हैं अथवा रघुवंश ( महाकाव्य ) के वसन्त वर्णन में ( प्रयुक्त यमक)।
टिप्पणी----ग्रन्थकार ने 'यमक' के उदाहरण के लिये रघुवंश के वसन्त वर्णन को उद्धृत किया है। कालिदास ने वैसे तो नवम सर्ग के प्रारम्भ से लेकर ५४ वें श्लोक तक निरन्तर यमकका प्रयोग किया है। पर वसन्त ऋतु का वर्णन २६ वें श्लोक से लेकर ४७ वें श्लोक तक है अत: उसी में से उदाहरणार्थ एक श्लोक यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
कुसुममेव न केवलमार्तवं नवमशोकतरोः स्मरदीपनम् । किसलयप्रसवोऽपि विलासिनां मदयिता दयिताश्रवणापितः ।।
रघुवंश, ९।२८ तथा शिशुपालवध के चतुर्थ सर्ग के कुछ यमकों को इन्होंने उदाहरण रूप में स्वीकार किया है । यद्यपि वहाँ प्रचुर मात्रा में यमकों का प्रयोग हुआ है किन्तु कहीं-कहीं वह प्रसादगुणयुक्त एवं श्रुतिपेशल नहीं है। अतः यहाँ एक ऐसा उदाहरण दिया जा रहा है जो उक्त समस्त विशेषताओं से युक्तप्राय है। रैवतक पर्वत का वर्णन करते हुए कृष्ण का सारथि दारुक कृष्ण से कहता है
वह ति यः परितः कनकस्थलीः सहरिता लसमाननवांशुकः । अचल एष भवानिव राजते स हरितालसमानवांशुकः ।।
शि. पा. व. ४।२१ एवं पदावयवानां वर्णानां विन्यासवभावे विचारित वर्णसमु. दायात्मकस्य पदस्य च वक्रभावविचारः प्राप्तावसरः । तत्र पदपूर्वार्धस्य तावद्वताप्रकारः कियन्तः संभवन्तीति प्रक्रमते
___ इस प्रकार पदों के अवयवभूत वर्गों के विन्यास की वक्रता का विचार कर लेने के अनन्तर वर्गों के समूहरूप पद की वक्रता का विचार करना लब्धावसर हो जाता है। उसमें पहले पद के पूर्वार्द्ध की वक्रता के कितने भेद सम्भव हो सकते हैं इसका ( विचार ) आरम्भ करत हैं