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वक्रोक्तिजीवितम्
शीर्णघ्राणाध्रिपाणीन् वणिभिरपघनर्घर्घराव्यक्तघोषान् दीर्याघ्रातानघौधः पुनरपि घटयत्येक उल्लाघयन् य । घर्माणोस्तस्य बोऽन्तदिगुणघनघृणानिघ्न निर्विघ्नवृत्ते
दत्तार्घा: सिद्धसङ्घविदधत घृणय: षीघ्रमहोविघातम् ।। यहाँ पर कवि सूर्य की किरणों से पाप नष्ट करने की बात कह रहा है लेकिन इसमें ण ण, ध्र घ्र, घ्न घ्न, आदि ऐसे श्रुतिकटु वर्णों की पुनः पुनः आवृत्ति कराई है जिससे सुनने वाले के कान छलनी हो जाते हैं और किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं प्राप्त होता। अत: ऐसी भी 'वर्णविन्यासवक्रता' बेकार होती है।
तदेवं कीदृशी तर्हि कर्तव्येत्याह-पूर्वावृत्तपरित्यागनूतनावर्तनोज्ज्वला पूर्वमावृत्तानां पुनः पुनरविरचितानां परित्यागेन प्रहाणेन नूतनानामभिनवानां वर्णानामावर्तनेन पुनः पुनः परिग्रहेण च तदेवमुभाभ्यां प्रकाराभ्यामुज्ज्वला भ्राजिष्णुः । यथा --
तो फिर [ वह वर्णविन्यासवक्रता] कैसी करनी चाहिए इसे बताते हैंपूर्वावृत्त के परित्याग तथा नवीन आवृत्ति से उज्ज्वल । पहले आवृत किए गये अर्थात् बार बार विरचित [ वर्णों ] के परित्याग अर्थात् [ उनकी पुनः पुनः आवृत्ति छोड़कर। ___नये नये अभिनव वर्गों की आवृत्ति के द्वारा अर्थात् पुनः पुनः ( नये वर्गों के ) ग्रहण के द्वारा, इस प्रकार दोनों ढङ्गों से उज्ज्वल अर्थात् सुशोभित होने वाली (वर्णविन्यासवक्रता प्रतिपादित करनी चाहिए)। जैसे--
एतां पश्य पुरस्तटीमिह किल क्रीडाकिरातो हरः कोदण्डेन किरीटिना सरभसं चूडान्तरे ताडितः । इत्याकर्ण्य कथाद्भुतं हिमनिषावद्रौ सुभद्रापते
मन्दं मन्दमकारि येन निजयो:दण्डयोमण्डनम् ॥२२॥ इस सामने की स्थली को तो देखो, यहीं पर अर्जुन ने धनुष के द्वारा लीला से किरात बने हुए शङ्कर के सिर के बीच तेजी के साथ चोट पहुँचाई थी। हिमालय पर इस प्रकार की सुभद्रा के प्रति अर्जुन की अद्भुत कथा सुनकर जिन (महादेव ) ने अपनी दोनों भुजाओं को धीरे धीरे मण्डलाकार करके सहलाया ( वे सर्वातिशायी हैं ) ।। २२ ।।
टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने पहले प की फिर क एवं ड की आवृत्ति कर उसे छोड़ तीसरे चरण से द, र, म, ण्ड आदि की नवीन रूप से आवत्ति