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वक्रोक्तिजीवितम्
( यहाँ 'स् न त' वर्ग समुदाय दो बार आवृत हुआ है किन्तु प्रथम त् के साथ स्वर 'उ' तथा दूसरे के साथ 'अ' प्रयुक्त हुआ है । ) यथा वा
तालताली इति ॥ १८ ॥ अथवा जैसे
तालताली यह ॥ १८ ॥ ( यहाँ पर 'त ल' वर्ण समुदाय की दो बार आवृत्ति हुई पर पहले ल के साथ स्वर 'अ' प्रयुक्त है जब कि दूसरे के साथ 'ई' प्रयुक्त है। इस प्रकार स्वरों के असादृश्य के चार उदाहरण दिए।)
सोऽयमुभयप्रकारोऽपि वर्गविन्यासवक्रताविशिष्टवाक्यविन्यासो यमकाभासः सन्निवेशविशेषो मक्ताकलापमध्यप्रोतमणिमयपदकाध. बन्धुरः सुतरां सहृदयहृदयहारिता प्रतिपद्यते। तदिदमुक्तम्--
वह यह ( अव्यवधानयुक्त वर्णों को आवृति रूप तथा व्यवधानयुक्त वर्णों की आवृत्ति रूप ) दोनों भेदों से युक्त, 'वर्णविन्यासवक्रता से' विशिष्ट वाक्य सङ्घटना वाला, यमक के समान (पदों का ) विशेष प्रकार का सन्निवेश ( पदसङ्गटना विशेष ) मोतियों के हार के मध्य में अनुस्यूत किए गए मणिनिर्मित पदकों की रचना के समान रमणीय ( होकर) अत्यन्त ही सहृदयहृदयावर्जक हो जाता है। इसी बात को (प्रथम उन्मेष को ३५ वीं कारिका में ) कहा जा चुका है कि
अलङ्कारस्य कवयो यत्रालङ्कुरणान्तरम् । असन्तुष्टा निबध्नन्ति हारादेर्मणिबन्धवत् ॥ १९ ॥ इति ।
जहाँ ( जिस मार्ग में ) कविजन (प्रयुक्त एक अलङ्कार से ) असन्तुष्ट होकर हारादि के मणिबन्ध के समान एक अलङ्कार के लिए दूसरे अलङ्कार का प्रयोग करते हैं ( उसे विचित्र मार्ग कहते हैं )॥ १९ ॥ ___ एतामेव विविधप्रकारां वक्रतां विशिनष्टि, यदेवंविधवक्ष्यमाण. विशेषणविशिष्टा विधातव्येति
(अब ) अनेक भेदों वालो इसी (वर्णविन्यासवक्रता ) की विशेषतायें बताते हैं कि ( यह वक्रता ) कही जाने वाली इस प्रकार को विशेषताओं से समन्वित रूप में प्रतिपादित की जानी चाहिए