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द्वितीयोन्मेष:
कदलीस्तम्बताम्बूलजम्बूजम्बीराः ॥ ४ ॥
( यहाँ स्पर्श वर्ण 'ब' अपने वर्ग के अन्तिम वर्ण 'म' के साथ संयुक्त होकर ४ बार आवृत हुआ है । )
यथा वा
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सरस्वतीहृदयारविन्दमकरन्दबिन्दु सन्दोहसुन्दराणाम् इति ॥ ५ ॥
द्वितीयप्रकारोदाहरणम् -
प्रथममरुणच्छायः ॥ ६ ॥
इत्यस्य द्वितीयचतुर्थी पादौ ।
तृतीय प्रकारोदाहरणमस्यैव तृतीयः पादः ।
अथवा जैसे – आचार्य कुन्तक की अपनी ही प्रथम उन्मेष की १६ वीं कारिका की वृत्ति का निम्न अंश - )
सरस्वतीहृदयारविन्दमक रन्द बिन्दुसन्दोहसुन्दराणाम् ॥ ५ ॥
( यहाँ पर स्पर्श वर्ण 'द' अपने वर्ग के अन्तिम वर्ण 'न' के साथ संयुक्त होकर ५ बार आवृत्त हुआ है । अत: यह भी प्रथम भेद का उदाहरण है ।
( अब ) दूसरे भेद ( द्विरुक्त त, ल, न आदि की पुनः पुनः आवृत्ति) का उदाहरण जैसे—
( पूर्वोदाहृत उदाहरण संख्या १/४१ ) प्रथममरुणच्छायः ।। ६ ।। इस ( श्लोक ) का द्वितीय तथा चतुर्थ चरण ।
टिप्पणी - उक्त पद्य का द्वितीय चरण है
तदनु विरह ताम्य तन्वीकपोलतलद्य ुतिः ।
यहाँ पर 'विरहोत्ताम्यत्तन्वी' में तकार के द्वित्व का दो बार प्रयोग हुआ है । अतः यह दूसरे भेद का उदाहरण हुआ ।
तथा इस पद्य का चतुर्थ चरण है
सरस बिसिनी कन्दच्छेदच्छविमृगलाञ्छनः ।
यहाँ पर यद्यपि न तो त, ल एवं न में से ही किसी का द्वित्व हुआ है और न प्रयुक्त छ अथवा चु का ही द्वित्व हुआ है । अपितु यहाँ 'छेच' सूत्र से तुक् का आगम, अनुबन्धलोप एवं श्चुत्व होकर द का च हो गया है । फिर भी कुस्तक ने इसे यहाँ उदाहृत किया है । इसके दो विशेष कारण १२ व० जी०