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प्रथमोन्मेषः
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प्रसव वाले, ( अर्थात् फल ही जिनका प्रसव है, उसे ही अरण्य-निवासी मुनियों आदि के द्वारा तोड़ लेने पर ) केवल डण्ठल रूप में ही शेष रहने वाले नीवार ( धान्य विशेष के वृक्ष ) की भाँति सुशोभित हो रहे हैं ।। ११८ ।।
अत्र श्लाध्यतया तथाविधमहाराजपरिस्पन्दे वर्ण्यमाने मुनिना स्वानुभवसिद्धव्यवहारानुसारेणालङ्करणयोजनमौचित्यपरिपोषमावहति । अत्र वस्तुः स्वभावेन च, वाच्यपरिस्पन्दः संवृतप्रायो लक्ष्यते । प्रमातुर्यथा. __ यहाँ प्रशंसनीय रूप में उस प्रकार के ( सातिशय ) महाराज ( रघु ) के स्वभाव को वर्णित किए जाते समय, मुनि ( कौत्स ) के द्वारा अपने अनुभव से ज्ञात व्यवहार के अनुसार ( उपमा रूप) अलङ्कार की योजना अत्यन्त ही औचित्य का परिपोषण करती है । ( अर्थात् मुनि ने जो राजा की उपमा नीवार के डण्ठल से दी है वह स्वतः उनके अनुभव से ज्ञात है। क्योंकि मुनि होने के कारण वे उसके फल को तोड़ते ही थे। अतः फल तोड़ लेने के बाद जो उन्हें उसके डण्ठल में एक अपूर्व शोभा के दर्शन होते थे उसी शोभा का साम्य राजा में सब कुछ दान कर देने के बाद देखने में उन्हें अनुभव हुआ अतः उन्होंने राजा की उपमा उस नीवार के डण्ठल से दे दी, जो कि उपमा देने वाले के मुनि होने के कारण अत्यधिक औचित्ययुक्त प्रतीत होती है। इसी लिए ) यहाँ पर वक्ता ( कौत्स मुनि ) के स्वभाव में (जो कि गम्य है। अभिधेय (राजा रघु) का स्वभाव आच्छादित सा प्रतीत होता है।) इस प्रकार इस उदाहरण के द्वारा वक्ता के स्वभाव से वाच्य के आच्छादित होने को दिखाया गया है । अब ) श्रोता के ( स्वभाव से वाच्य वस्तु के आच्छादित होने का उदाहरण ) जैसे
निपीयमानस्तबका शिलीमुखैरशोकयष्टिश्चलबालपल्लवा । विडम्बयन्ती ददृशे वधूजनैरमन्ददष्टौष्ठकरावधूननम् ।। ११६ ।।
नायिका-निवह के द्वारा भ्रमरों से पान किए जाते हुए मधुवाले पुष्पगुच्छों वाली और हिलते हुए नये किसलयों वाली अशोकलता जोर से काट लिए गये हुए अधर वाली ( कामिनी ) के हाथ हिलाने की अनुकृति करती हुई उत्प्रेक्षित की गई ॥ ११६ ।। ___ अत्र वधूजनैर्निजानुभववासनानुसारेण तथाविधशोभाभिरामतानु. भूतिरौचित्यपरिपोषमावहति । यथा वा
यहां पर नायिकाओं के द्वारा अपनी अनुभूति की वासना के अनुसार उसी तरह की विच्छित्ति की रमणीयता का अनुभव औचित्य को परिपुष्ट करता है । अथवा जैसे