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प्रथमोन्मेषः
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हृदयाह्लादकारितां प्रापितम् । एतच्च व्याजस्तुतिपर्यायोक्तप्रभृतीनां भूयसा विभाव्यते । ___यहाँ ( क्रम से ) 'आप कहाँ से आये हैं,' तथा 'इनका नाम क्या है ये ही अलंकार्य, अप्रस्तुतप्रशंसा रूप अलंकार की शोभा से युक्त होने के कारण इसी ( अप्रस्तुप्रशंसा अलंकार की शोभा में समाये हुए ही सहृदयों के हृदयों को आह्लादित करते हैं । ( इस प्रकार का ) यह (वैचित्र्य ) व्याजस्तुति तथा पर्यायोक्त आदि ( अलंकारों) में प्रचुरता से देखा जाता है। .
ननु च रूपकादीनां स्वलक्षणावसर एव स्वरूपं निर्णेष्यते तत् किं प्रयोजनमेतेषामिहोदाहरणस्य ? सत्यमेतत् , किन्त्वेतदेव विचित्रस्य वैचित्र्यं नाम यदलौकिकच्छायातिशययोगित्वेन भूषणोपनिबन्धः कामपि वाक्यवक्रतामुन्मीलयति ।
(क्योंकि प्रकरण यहाँ विचित्रमार्ग का चल रहा है लेकिन उदाहरण रूपक, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजस्तुति आदि अलंकारों के दिये जा रहे हैं, तो पूर्वपक्षी यह देख कर शंका करता है कि-रूपक आदि अलंकारों के स्वरूप का निर्णय तो उनका लक्षण करते समय ही किया जायगा तो उनके उदा. हरणों को यहाँ (विचित्रमार्ग के प्रसङ्ग में ) क्यों उद्धृत किया जा रहा है ? ( इनका उत्तर देते हैं कि) यह बात सही है (कि रूपकादि के स्वरूप का निर्णय उनका लक्षण करते समय होगा अतः यहाँ उनके उदाहरण न प्रस्तुत किये जाने चाहिए ) किन्तु विचित्र (मार्ग) का तो यही वैचित्र्य ही है कि ( उसमें ) अलौकिक शोभा के अतिशय से युक्त रूप में ही अलंकारों का प्रयोग किसी ( अनिर्वचनीय, अपूर्व ) वाक्यवक्रता को उन्मीलित करता है । ( अतः उसे समझाने के लिए यहाँ भी रूपकादि अलंकारों के उदाहरणों को उद्धृत करना आवश्यक हो गया है । )
विचित्रमेव रूपान्तरेण लक्षयति-यदपोत्यादि। यदपि वस्तु वाच्यमनूतनोल्लेखमनभिनवत्वेनोल्लिखितं तदपि तत्र यस्मिनलं कामपि काष्ठां नीयते लोकोत्तरातिशयकोटिमधिरोप्यते ॥ कथम्-उक्तिवैचित्र्यमात्रेण, मणितिवैदग्ण्येनैवेत्यर्थः । यथा
( अब ) विचित्र ( मार्ग) को ही दूसरे ढंग से प्रतिपादित करते हैं'यदपि' इत्यादि ( ३८ वीं कारिका के द्वारा)। (जिस मार्ग में ) जहाँ दो भी वाच्यवस्तु अनूतनोल्लेख अर्थात् ) पूर्व कवियों द्वारा उल्लिखित होने के कारण) अभिनव रूप से नहीं चित्रित होती वह भी पर्याप्त किसी काम को