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________________ १२८ वक्रोक्तिजीवितम् धन से युक्त होते हुए भी धनाभिलाषी निधनों का घन देकर उपकार नहीं कर सकता । इस प्रकार अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार भी प्रतीयमान रूप से उपनिबद्ध किया गया है। इस प्रकार यह अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार व्याजस्तुति अलङ्कार से और भी अलङ्कृत हो जाता है)। __ और न यहाँ पर अप्रस्तुत प्रशंसा तथा व्याजस्तुति के सङ्करालङ्कार का ही व्यवहार हो सकता है अलग-अलग दोनों के स्पष्ट रूप से प्रतीत होने के कारण । (अर्थात् सन्देह-सङ्कर इसलिए नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि दोनों अलग-अलग स्पष्ट झलकते हैं संदेह की कोई गुंजाइश नहीं । अङ्गाङ्गिभाव सडर भी नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों में से कोई भी किसी के अङ्गरूप में उपात्त नहीं किया गया एवं एकाश्रयानुप्रवेश भी नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों के आश्रय अलग-अलग हैं अर्थात् एक का आश्रय प्रतीयमान है दूसरे का आश्रय वाच्यार्थ है )। तथा दोनों के समप्रधान भाव से स्थित न होने के कारण दोनों की संसृष्टि भी सम्भव नहीं है । ( क्योंकि वाक्यरूप से दोनों अलंकार नहीं उपात्त हुए अतः दोनों का सम प्राधान्य नहीं कहा जा सकता)। तथा दोनों अलंकार वाच्य भी नहीं हैं, दोनों का विषय भिन्न होने से अर्थात् एक का विषय वाच्यार्थ है दूसरे का प्रतीयमान । अतः सिद्ध हुआ कि यहाँ व्याजस्तुति का प्रयोग अप्रस्तुतप्रशंसा के अलंकार रूप में किया गया है क्योंकि कवि केवल अप्रस्तुतप्रशंसाजन्य चमत्कार से संतुष्ट नहीं था ) । अथवा जैसे इसी का दूसरा उदाहरण नामाप्यन्यतरोनिमीलितमभत्तत्तावदुन्मीलितं प्रस्थाने स्खलतः स्ववमनि विधेरन्यद् गृहीतः करः। लोकश्चायमदृष्टदर्शनकृताद् हग्वैशसादुद्धृतो युक्तं काष्टिक लुनवान् यदसि तामात्रालिमाकालिकीम् ।। ११॥ हे काष्ठवाहक (महाशय ) आपने बड़ा ही अच्छा किया जो उस असामयिक (बिना फसल के बारहों महीने फल देने वाली ) आम ( के पेडों) की पंक्ति को काट डाला । ( क्योंकि उससे जो) अन्य वृक्षों का नाम भी समाप्त हो गया था उसे आपने प्रकट कर दिया ( यह पहला लाभ हुआ) तथा अपने मार्ग में चलते समय गिरते हुए ब्रह्मा का हाथ पकड़ लिया ( अर्थात् उन्हें सहारा दिया) यह दूसरा ( फल प्राप्त हुआ) तथा इस लोक का अदष्ट के दर्शन से जन्य नेत्रों के कष्ट से उद्धार किया (यह तीसरा लाभ हुआ)॥ ११ ॥ टिप्पणी-कवि से इस पद्य में पूर्व उदाहत पद्य की भांति वाच्य रूप से
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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