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वक्रोक्तिजीवितम् प्रयुक्त) पदों के ( प्रतीयमान ) अन्य अर्थ की प्रतीति कराने वाला होने पर भी उन्हें श्लिष्ट संज्ञा नहीं दी जा सकती, वाच्य के साथ समप्राधान्य से (प्रतीयमान अर्थ के ) स्थित न होने से ( क्योंकि श्लेष में दोनों अर्थ वाच्य एवं समप्राधान्ययुक्त होते हैं )। तथा ( इस श्लोक में प्रयुक्त पदों की) अन्य (प्रतीयमान रूप) अर्थ की प्रतीतिकारिता, प्रतीयमान ( महापुरुष रूप) अर्थ की स्पष्ट प्रतीति कराने के लिए प्रयुक्त होकर अत्यन्त ही चमत्कारजनक हो गई है।
तमेव विचित्रं प्रकारान्तरेण लक्षयति-अलंकारस्येत्यादि । यत्र यस्मिन्मार्गे कवयो निबध्नन्ति विरचयन्ति, अलंकारस्य विभूषणस्यालंकरणान्तरं विभूषणान्तरम् असंतुष्टाः सन्तः । कथम्-हारादेर्मणि. बन्धवत् । मुक्ताकलापप्रभृतेर्यथा पदकादिमणिबन्धं रत्नविशेषविन्यासं वैकटिकाः यथा
उसी विचित्र ( मार्ग ) का दूसरे ढंग से लक्षण करते हैं. अलङ्कारस्ये-. त्यादि ( ३५वीं कारिका के द्वारा)। जहाँ अर्थात् जिस मार्ग में कवि लोग ( एक ही अलङ्कार के प्रयोग से ) असन्तुष्ट होकर अलङ्कार अर्थात् (एक) विमूषण के अलङ्करणान्तर अर्थात् दूसरे विभूषण का निवन्धन अर्थात् रचना करते हैं । किस प्रकार से-हारादि के मणिबन्ध के समान । जैसे.. ( वैकटिक ) मुक्तावली इत्यादि ( रत्नों) के पदक आदि ( रूप में मणियों का बन्ध अर्थात् विशेष रत्नों का विन्यास ( करते हैं ) । जैसे
हे हेलाजितबोधिसत्त्ववचसा कि विस्तरैस्तोय नास्ति त्वसदृशः परः परहिताधाने गृहीतव्रतः। तृष्यत्पान्थजनोपकारघटनावमुख्यलब्धायशो
भारप्रोद्वहने करोषि कृपया साहायकं यन्मरोः॥१०॥ लीलामात्र से भगवान् बुद्ध को जीत लेने वाले हे सागर ( महाराज ) ! (आपकी तारीफ करने के लिए ) वाणी के अधिक विस्तार से क्या ( लाभ अर्थात् ज्यादा कहने की जरूरत नहीं। वास्तव में ) आपके समान ( संसार भर में ) परोपकार करने का व्रत ग्रहण करने वाला कोई दूसरा नहीं (दिखाई पड़ता ) है । जो तुम प्यासे राहियों का ( पानी पिलाने रूप) उपकार करने से विमुख होने के कारण प्राप्त अपथयश के भार को वहन करने में, कृपापूर्वक मरुस्थल की सहायता करते हो ॥ १० ॥
अत्रात्यन्तगहणीयचरितं पदार्थान्तरं प्रतीयमानतया चेतसि निधाय तथाविषविलसितः सलिलनिधिर्वाच्यतयोपक्रान्तः । तदेवावदेवा